uttarakhand phool dei festival essay in sanskrit
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चैत का महीना उत्तराखंडी समाज के बीच विशेष पारंपरिक महत्व रखता है। चैत की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर इस पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं। इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं।
यह मौल्यार (बसंत) का पर्व है। इन दिनों उत्तराखंड में फूलों की चादर बिछी दिखती है। बच्चे कंडी (टोकरी) में खेतों-जंगलों से फूल चुनकर लाते हैं और सुबह-सुबह पहले मंदिर में और फिर हर घर की देहरी पर रखकर जाते हैं। माना जाता है कि घर के द्वार पर फूल डालकर ईश्वर भी प्रसन्न होंगे और वहां आकर खुशियां बरसाएंगे। इस पर्व की झलक लोकगीतों में भी दिखती है। उत्तराखंडी लोकगीतों का फ्यूजन तैयार करने वाले पांडवाज ग्रुप के लोकप्रिय फुल्यारी गीत में फुलारी को सावधान करते हुए कहा गया है-
चला फुलारी फूलों को,
चला फुलारी फूलों को,सौदा-सौदा फूल बिरौला
चला फुलारी फूलों को,सौदा-सौदा फूल बिरौलाभौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां
चला फुलारी फूलों को,सौदा-सौदा फूल बिरौलाभौंरों का जूठा फूल ना तोड्यांम्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां
बदलते वक्त के साथ पर्व को मनाने का ढंग भी बदला है। मयूर विहार फेज-1 में रहने वाले करण बुटोला कहते हैं – 70 के दशक में हमने मयूर विहार में भी घर-घर जाकर फूल डाले मगर आज बच्चों के पास वक्त कम है इसलिए हम बिखौती के दिन बद्रीनाथ मंदिर में जुटकर कार्यक्रम करते हैं। दिल्ली का यंग उत्तराखंड क्लब हर साल फूल संग्रांद पर बच्चों को फूल डालने के लिए तैयार करता है। मयूर विहार फेज-3 में रहने वालीं यशोदा नेगी के मुताबिक, दिल्ली में बसने के बाद हमने फुलदेई को भुला सा दिया था मगर अब पोते-पोती को इस बारे में बता रहे हैं और वे भी उत्साह से फूल डालते हैं। पवन मैठाणी कहते हैं – इस पर्व का समापन बिखौती (13 अप्रैल की बैसाखी) को होता है, जब फुलारी को टीका लगाकर पैसे, गुड़, स्वाली-पकौड़ी (पकवान) या कोई भी गिफ्ट देकर विदा किया जाता है। बिखौती के दिन उत्तराखंड में जगह-जगह मेले लगते हैं।