Hindi, asked by jishanmansoori2254, 1 month ago

ऊधौ मन अभिमान बढ़ायो ।
जदुपति जोग जानि जिय साँचौ, नैन अकास चढ़ायौ ॥
नारिनि पै मोकौं पठवत हैं, कहत सिखावन जोग ।
मन ही मन अप करत प्रसंसा, यह मिथ्या सुख-भोग ॥
आयसु मानि लियौ सिर ऊपर, प्रभु आज्ञा परमान ।
सूरदास प्रभु गोकुल पठवत, मैं क्यौं हौं कि आन ॥
Hindi vyakhaya.

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Answered by shishir303
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ऊधौ मन अभिमान बढ़ायो ।

जदुपति जोग जानि जिय साँचौ, नैन अकास चढ़ायौ ॥

नारिनि पै मोकौं पठवत हैं, कहत सिखावन जोग ।

मन ही मन अप करत प्रसंसा, यह मिथ्या सुख-भोग ॥

आयसु मानि लियौ सिर ऊपर, प्रभु आज्ञा परमान ।

सूरदास प्रभु गोकुल पठवत, मैं क्यौं हौं कि आन ॥

संदर्भ : यह पंक्तियां सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के भ्रमरगीत प्रसंग से ली गई है। इन पंक्तियों में उद्धव और ब्रज की गोपियों के बीच संवाद का प्रसंग है।

व्याख्या : ऊद्धव मन ही मन सोचने लगे कि जगपति श्रीकृष्ण ने योग की महत्व को जानकर  और मुझे योग का ज्ञानी जानकर मुझे इन नारियों के पास योग को सिखाने को भेजा है। लेकिन वे मन ही मन गोपियों के उस मिथ्या सुख की प्रशंसा करते है, जो सुख वो श्रीकृष्ण का स्मरण करके पा रही हैं। इस मिथ्या सुख के आगे के योग का ज्ञान देना व्यर्थ है। लेकिन मुझे श्रीकृष्ण की आज्ञा का मान रखना है और उनकी आज्ञा मेरे लिये सब कुछ है। इसलिये मुझे इनको योग का ज्ञान देना ही पडेगा। लेकिन प्रभु ने योग का ज्ञान देने के लिये मुझे ही क्यों भेजा क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रेम में रंगी इन गोपियों को योग का ज्ञान देना व्यर्थ है।

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