Hindi, asked by Cheshta3136, 5 months ago

विभिन्न धर्मों के बीच 5 अंतर​

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Answered by bhartichovatiya167
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Answer:

1.1 वैदिक धर्म का विकास

1.2 श्रमण धर्मों का उदय

1.3 इस्लाम का आगमन

1.4 भक्ति आंदोलन

1.5 सिक्ख धर्म

1.6 ईसाई धर्म का उद्गम

1.7 सांप्रदायिकता

दुनिया में दो तरह के धर्म हैं। एक कर्म प्रधान और दूसरा विश्वास प्रधान। एक स्वदेशी और दूसरा विदेशी। एक स्वदेशी संस्कृति और परंपरा में रचा-बसा और दूसरा विदेशी परंपरा से लदा हुआ। अब यह समझने या समझाने की बात नहीं कि मूलत: हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म तीनों का ही एक ही मूल से जन्म है। ये एक ही वृक्ष की अलग-अलग शाखाएं हैं, उसी तरह जिस तरह कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं।

एक ओर हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख हैं तो दूसरी ओर यहूदी, ईसाई और इस्लाम हैं। ये दोनों ही दो विपरीत छोर हैं। निश्चित ही सभी धर्मों में एक जैसी बातें होने के लिए इन दो तरह की धाराओं में आप ऐसे श्लोक, आयत या छंद निकाल सकते हैं, जो कि बिलकुल मिलते-जुलते हो। ऐसा आप इसलिए कर सकते हैं, क्योंकि आप धर्मों के बीच एकता चाहते हैं। पिछले 1,500 वर्षों से कई संतों और सूफियों ने यह समझाने का निरर्थक प्रयास किया कि सभी धर्म एक ही हैं, क्योंकि ईश्वर, गॉड या अल्लाह एक ही हैं। भाषाओं की विविधता के कारण नाम अलग-अलग हो गए। खैर...!

यहां यह कहना जरूरी है कि हिन्दू धर्म की विदेशी धर्मों से तुलना करना व्यर्थ है। उसमें समानता ढूंढना व्यर्थ है। दरअसल, हिन्दू धर्म का दर्शन और सिद्धांत विदेशी धर्मों से बिलकुल भिन्न है। तुलना करने का अर्थ है कि आप विचारों में कहीं-न-कहीं समानता ढूंढकर समन्वय या एकता स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन बिलकुल समरूप अथवा बिलकुल विपरीत तत्वों की तुलना नहीं की जा सकती। हिन्दू धर्म के विपरीत जो धर्म हैं, वे भी उतने ही प्यारे और सम्मानीय हैं। दरअसल, ये दो तरह के मार्ग हैं। आप एक मार्ग की दूसरे मार्ग से तुलना नहीं कर सकते हैं।

1. अहिंसा परमो धर्म

मूलत: इसके सूत्र वेदों में मिलते हैं लेकिन इसको सबसे ज्यादा अंगीकार किया है जैन और बौद्ध धर्म ने। अहिंसा, दया और करुणा भाव हिन्दू धर्म का मूल है। कहते भी हैं कि 'दया ही धर्म है'। लेकिन हिन्दुओं के लिए दया ही दुख का कारण बन गई। जहां दया है वहां धर्म है।

हिन्दू ऐसे किसी धर्म की कल्पना नहीं कर सकता जिसमें हिंसा को धर्म का आधार बनाया गया हो। हिन्दू जीवमात्र के लिए दया और कल्याण की भावना रखता है। वेद और पुराण सह-अस्तित्व की भावना को बल देते हैं। इसका मतलब है कि आपको दूसरे को भी उसकी स्वतंत्रता के साथ जीने देना है तथा अपने विचार या अपना धर्म उस पर थोपना नहीं है। यही बात जैन धर्म में 'जियो और जीने दो' के रूप में विद्यमान है। यदि आपकी रुचि धर्मांतरण या दूसरे धर्म के लोगों को अपने धर्म में करने की है तो निश्चित ही आप धर्म के मार्ग पर नहीं हो सकते। यदि आप यह समझते हैं कि आपके संदेशवाहक ही असल में सही हैं तो आप सांप्रदायिक हैं।

2. आत्मा की अमरता

हिन्दू धर्मानुसार आत्मा का शरीर बदलता रहता है लेकिन आत्मा अजर-अमर है। आत्मा मनुष्य की आकृति में भी है और पशु की आकृति में भी। प्रत्येक प्राणी में आत्मा है। आत्मा अर्थात वह स्वयं जिसने शरीर धारण कर रखा है। आत्मा का कोई आकार या प्रकार नहीं होता। सभी में एक जैसी ही आत्मा रहती है। इस तरह करोड़ों-अरबों आत्माएं सशरीर और अशरीर रहकर इस ब्रह्मांड में विचरण कर रही हैं।

आत्मा को अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म मिलता है। उसे कोई ईश्वर न तो पैदा करता है और न ही नष्ट करता है। ईश्वर उसे न तो उसके पाप का दंड देता है और न ही पुरस्कार जबकि दूसरे धर्मों में ऐसा नहीं है। वहां मरने के बाद पुनर्जन्म का सिद्धांत नहीं है। मरने के बाद सभी को उनके धर्मग्रंथों के अनुसार ईश्वर के समक्ष खड़े होना होगा जबकि हिन्दू धर्म में जन्म, जीवन और मृत्यु का चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक कि व्यक्ति मोक्ष प्राप्त न कर ले।

3. ईश्वर मात्र उपस्थिति

हिन्दुओं के अनुसार ईश्वर कर्ता-धर्ता नहीं है। उसके होने से ही सबकुछ है, जैसे सूर्य एक जगह ही उपस्थित है। ऐसा नहीं है कि वह पुण्यात्माओं को प्रकाश देता है और पापियों को नहीं। ऐसा भी नहीं है कि वह देवी या देवताओं के माध्यम से इस ब्रह्मांड को संचालित करता है। ईश्वर को किसी की भी आवश्यकता नहीं।

जैसे सूर्य के प्रकाश से यह जगत प्रकाशित और जीवित है उसी तरह संपूर्ण ब्रह्मांड उस विराट की उपस्थिति से जीवित और चलायमान है। जैसे संपूर्ण नदियां अंत में समुद्र में विलीन हो जाती हैं उसी तरह महाप्रलय काल में यह संपूर्ण ब्रह्मांड उसी में लीन होकर पुन: प्रकट होता है। जो लोग ईश्वर को मानते हैं वे उसी तरह हैं जिस तरह कि किसी पौधे को अज्ञात स्रोत से जल मिलने लगा हो या जिनके ऊपर से बादल हट गए हों और सूर्य के प्रकाश से वे प्रकाशित हो गए हों। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे रेगिस्तान या किसी गुफा में उगे उस पौधों की तरह हैं जिसमें फूल या फल खिलने की संभावना कम ही होती है।

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