India Languages, asked by akashlokhande2141, 3 months ago

विचारधारा या निबंध संग्रहाचे संपादक कोण आहे? *


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Answered by Anonymous
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Answer:

सामाजिक राजनीतिक दर्शन में राजनीतिक, कानूनी, नैतिक, सौंदर्यात्मक, धार्मिक तथा दार्शनिक विचार चिंतन और सिद्धांत प्रतिपादन की व्यवस्थित प्राविधिक प्रक्रिया है। विचारधारा का सामान्य आशय राजनीतिक सिद्धांत रूप में किसी समाज या समूह में प्रचलित उन विचारों का समुच्चय है जिनके आधार पर वह किसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संगठन विशेष को उचित या अनुचित ठहराता है।[1] विचारधारा के आलोचक बहुधा इसे एक ऐसे विश्वास के विषय के रूप में व्यवहृत करते हैं जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। तर्क दिया जाता है कि किसी विचारधारा विशेष के अनुयायी उसे अपने आप में सत्य मानकर उसका अनुसरण करते हैं, उसके सत्यापन की आवश्यकता नहीं समझी जाती। वस्तुतः प्रत्येक विचारधारा के समर्थक उसकी पुष्टि के लिए किंचित सिद्धांत और तर्क अवश्य प्रस्तुत करते हैं और दूसरे के मन में उसके प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने का प्रयत्न करते हैं।[2]

साम्यवाद में विचारधारा को अधिरचना का अंग माना जाता है, जहाँ वह आर्थिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है। साम्यवादी चिंतनधारा की मान्यता है कि अधिकतर विचार, विशेषकर समाज के संगठन से संबंधित विचार, वर्ग विचार होते हैं। वे वास्तव में उस वर्ग के विचार होते हैं जिसका उस काल में समाज पर प्रभुत्व होता है। इन विचारों को वह वर्ग बाकी समाज पर थोपे रखता है क्योंकि यह वर्ग प्रचार के सारे साधनों का स्वामी होता है।[3] विरोधी वर्गों वाले समाज में विचारधारात्मक संघर्ष वर्ग हितों के संघर्ष के अनुरूप होता है, क्योंकि विचारधारा यथार्थ का सच्चा या झूठा प्रतिबिंब भी हो सकता है और वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक भी हो सकता है। प्रतिक्रियावादी वर्गों के हित झूठी विचारधारा को पोषित करते हैं। प्रगतिशील, क्रांतिकारी वर्गों के हित विज्ञानसम्मत चिंतनधारा का निर्माण करने में सहायक होते हैं।[4] साम्यवादी मान्यतानुसार विचारधारा का विकास अंततोगत्वा अर्थव्यवस्था से निर्धारित होता है, परन्तु साथ ही उसमें कुछ सापेक्ष स्वतंत्रता भी होती है। इसकी अभिव्यक्ति विशेष रूप से विचारधारा की अंतर्वस्तु का सीधे आर्थिक स्पष्टीकरण करने की असम्भवनीयता में और साथ ही आर्थिक तथा विचारधारात्मक विकास की कुछ असमतलता में होती है। इन सबके अलावा विचारधारा की सापेक्ष स्वतंत्रता की अधिकतर अभिव्यक्ति विचारधारात्मक विकास के आंतरिक नियमों की संक्रिया में और साथ ही उन विचारधारात्मक क्षेत्रों में होती है, जो आर्थिक आधार से बहुत दूर स्थित होते हैं। विचारधारा की सापेक्ष स्वतंत्रता का कारण यह है कि विचारधारात्मक विकासक्रम विभिन्न आर्थिकेतर कारकों के प्रभावान्तर्गत रहता है। ये कारक हैं : (१) विचारधारा के विकास में आंतरिक अनुक्रमिक संबंध, (२) विचारधारा विशेष के निरूपकों की निजी भूमिका तथा (३) विचारधारा के विभिन्न रूपों का पारस्परिक प्रभाव, आदि।[5]

बीसवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में बुर्जुआ दार्शनिकों के बीच यथार्थ के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण और विचारधारा के बेमेल होने संबंधी विचार व्यापक रूप से प्रचलित हुए। बुर्जुआ विचारधारा को आत्मिक प्रत्यय की भाँति मानते हैं जो केवल समूह या दल विशेष के हितों को व्यक्त करती है। इसी कारण वे विज्ञान और विचारधारा के अंतरों को निरपेक्ष बनाने, उन्हें एक-दूसरे के मुकाबले में रखने के इच्छुक होते हैं। बुर्जुआ दर्शन और विज्ञान का तथाकथित "निर्विचारधाराकरण" करने का प्रयत्न करते हैं। आठवें दशक में बुर्जुआ विचारधारा निरूपकों ने इस ध्येय की सिद्धि में साम्यवाद के मुकाबले अपनी नयी विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए "पुनर्विचारधाराकरण" की बात करना प्रारंभ कर दिया।[6]

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