वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ प्रकृति की सुरक्षा क्यों जरूरी है
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आज के मानव ने प्रकृति पर पूर्णतः विजय पा ली है। यह विकास की दृष्टि से तो ठीक है, परंतु ऐसा करके मानव ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार दी है। विज्ञान की मदद से मानव चांद पर भी चला गया है, पर जिस हिसाब से आधुनिकता के नाम पर उसने प्रकृति से छेड़छाड़ की है, उसका खामियाजा तो हम मानवों को ही भुगतना पड़ेगा।
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वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ प्रकृति की सुरक्षा क्यों जरूरी हैl
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पर्यावरण में जितना महत्व मनुष्यों का है, उतना ही अन्य जीव-जन्तुओं का भी। अकेले मानवों के अस्तित्व के लिए भी पेड़-पौधो की उपस्थिति अनिवार्य है। प्राणवायु ऑक्सीजन हमें इन वनस्पतियों के कारण ही मिलती हैं।
वैज्ञानिक गतिविधियों के कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। साथ ही कभी औद्योगिकीकरण के नाम पर तो कभी शहरीकरण के नाम पर पेड़ो की अंधाधुंध कटाई हुई है। बढ़ती जनसंख्या के कारण भी पर्यावरण संकट गहराता जा रहा हैl
जनसंख्या स्वास्थ्य और विश्व स्थिरता को खतरा है। जैव विविधता के नुकसान में जलवायु परिवर्तन का भी बड़ा योगदान है, क्योंकि कुछ प्रजातियां बदलते तापमान के अनुकूल नहीं बन पाती हैं। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के लिविंग प्लेनेट इंडेक्स के अनुसार, पिछले 35 वर्षों में जैव विविधता में 27 प्रतिशत की गिरावट आई है।
उपभोक्ताओं के रूप में हम सभी पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने वाले उत्पादों को खरीदकर जैव विविधता की रक्षा में मदद कर सकते हैं। साथ ही पॉलिथीन के स्थान पर घर का बना कपड़े का थैला प्रयोग कर सकते हैं। यह प्रयास भी पर्यावरण संरक्षण में हाथ बंटाएगा।
हमारा पर्यावरण प्राकृतिक और कृत्रिम परिवेश, दोनों का मिलाजुला स्वरुप है। इसके अन्तर्गत पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण की बात की जाती है।
पर्यावरण सुरक्षा की गंभीरता को देखते हुए 5 जून, 1972 में पहली बार स्टॉकहोम (स्वीडन) में पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया। पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए भारत ने भी महत्वपूर्ण कदम उठाया और 1986, में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम पारित कर दिया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में घुले घातक रसायनों की अधिकता को कम करना और पारिस्थितिकीय तंत्र को प्रदूषण से बचाना है।
इस अधिनियम में कुल 26 धाराएं हैं। और इन धाराओं को चार अलग-अलग अध्यायों में विभक्त किया गया है। यह कानून पूरे भारतवर्ष में 19 नवंबर, 1986 से प्रभावी है।
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