Social Sciences, asked by lalongyangfo837, 1 month ago


) किन्हीं चार आधुनिक भारतीय भाषाओं के उदय का विश्लेषण
Analyse the rise of any four Modern India languages.
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inn202021(In100-150
words​

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Answered by krishanmajra1994
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Explanation:

वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई छान्द्स की परम्परा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर लौकिक संस्कृत नाम दिया। इस तरह वैदिक भाषा (छान्द्स) और लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव वैदिक काल की प्राकृत से ही हुआ है, यही भारतीय भाषा के विकास का प्रथम स्तर है।

2. द्वितीय स्तरः प्राकृत साहित्य (ईसापूर्व 600 से ईसवी 200 तक)

पाणिनी द्वारा छान्द्स (वैदिक) भाषा के आधार से जिस लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, उसमें पाणिनी के बाद कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जबकि वैदिक युग की कथ्य रूप से प्रचलित प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं में परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। भारतीय भाषा के इस द्वितीय स्तर को तीन युगों में विभक्त किया गया है।

प्रथमयुगः- (ई.पूर्व 600से र्इ्र. 200 तक) इसमें शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष-पालि, प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, बोद्ध जातकों की भाषाएँ आती हैं।

मध्य युगीनः-(200 ई. से 600 ई. तक) इसमें भाष और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत है।

तृतीय युगीनः-(600 से 1200 ई. तक) भिन्न भिन्न प्रदेशों की परवर्तीकाल की अपभ्रंश भाषाएँ।

3.तृतीय स्तरः अपभ्रंश साहित्य (1200 ईस्वी से आगे तक)

पुनः अपभ्रंश भाषा के जन साधारण में अप्रचलित होने से ईस्वी की पंचम शताब्दी के पूर्व से लेकर दशम शताब्दी पर्यन्त भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में कथ्यभाषाओं के रूप में प्रचलित जिस-जिस अपभ्रंश भाषा से भिन्न भिन्न प्रदेश की जो-जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषा उत्पन्न हुई है उसका विवरण इस प्रकार है -

मराठी-अपभ्रंश से - मराठी और कोंकणी भाषा।

मागधी अपभ्रंश की पूर्व शाखा से - बंगला,उडिया और आसामी भाषा।

मागधी-अपभ्रंश की बिहारी शाखा से - मैथिली,मगही,और भोजपुरिया।

अर्ध मागधी-अपभ्रंश से - पूर्वीय हिन्दी भाषाएँ अर्थात अवधी,बघेली,छत्तीसगढी़।

सौरसेनी अपभ्रंश से - बुन्देली,कन्नोजी,ब्रजभाषा,बाँगरू,हिन्दी ।

नागर अपभ्रंश से - राजस्थानी,मालवा,मेवाड़ी,जयपुरी,मारवाड़ी तथा गुजराती।

पाली से - सिंहली और मालदीवन ।

टाक्की अथवा ढाक्की से- लहन्डी या पश्चिमीय पंजाबी ।

ब्राचड अपभ्रंश से- सिन्धी भाषा ।

पैशाची अपभ्रंश से - काश्मीरी भाषा ।

इस प्रकार हम देखते है कि अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अन्तिम अवस्था तथा प्राचीन और नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के बीच का सेतुबन्ध है। इसका आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के साथ एक जननी का घनिष्ट सम्बन्ध है। मराठी, गुजराती,राजस्थानी, उड़िया, बंगाली,असमिया आदि सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास में अपभ्रंश की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी भाषा तो इसकी साक्षात उत्तराधिकारिणी है।ईस्वी सन् की छठी शती से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भारतीय विचार, भावना, साहित्य, धर्म, दर्शन तथा समाज की धड़कनों को जानने -बूझने की सशक्ततम माध्यम थी।

योगिन्दु एवं स्वयंभू जैसे महाकवियों के हाथों अपभ्रंश साहित्य का बीजारोपण हुआ, पुष्पदन्त, धनपाल, रामसिंह, देवसेन, हरिभद्र, कनकामर, हेमचन्द्र, नयनन्दि, सोमप्रभ, जिनप्रभ, विनयचन्द्र, राजशेखर, अब्दुल रहमान, सरह और काण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया, और अन्तिम दिनों में भी इस साहित्य को यशःकीर्ति और रइधू जैसे महाकवियों का संबल प्राप्त हुआ।

इस भाषा में महाकाव्य, पुराणकाव्य, चरिउकाव्य, कथाकाव्य, धार्मिक तथा लौकिक खंडकाव्य, रहस्य-भक्ति-नीति तथा उपदेशमूलक मुक्तक काव्य आदि सभी रूपों में रचनाएँ हुईं। अपनी भावधारा और शैलीगत विशिष्टता के आधार पर अब वह किसी भी भाषा के समक्ष तुल्यात्मक मूल्याकंन के लिए शान से खड़ी हो सकती है। इसी से छठी से बारहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश का स्वर्णयुग कहा जाता है।

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