विकास के साथ-साथ विनाश भी किस प्रकार जुड़ा हुआ है। (150शब्दों में बताएं)
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विकास के साथ-साथ विनाश
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विकास और विनाश की धाराएँ एक साथ चलें-कभी समानांतर और कभी एक-दूसरे को काटती हुई-तो भला किसको आश्चर्य नहीं होगा ? लेकिन यह आश्चर्य आज का सत्य है। आप इसे बीसवीं शताब्दी का परम सत्य भी कह सकते हैं। एक ऐसा भयानक सत्य है यह जो आगे आनेवाली शताब्दियों के सामने दो विराम चिह्न रखता है, एक प्रश्नवाचक और दूसरा पूर्ण विराम। विज्ञान की ताबड़तोड़ भाग-दौड़, मनुष्य का अपरिचित-असंतुष्ट लालच, तेजी से क्षत-विक्षत होनेवाले प्राकृतिक संसाधन, और प्रदूषण से भरा-पूरा संसार उजड़ता हुआ-ये सब आखिर कैसा चित्र उभारते हैं ? जितनी तेजी गति से विकास की ओर बढ़ रहे हैं क्या उतनी ही तेज गति से विनाश हमारी ओर बढ़ रहा है ? तो फिर नतीजा क्या होगा ? मानवता के सामने यह एक विराट् प्रश्नचिह्न है। यदि इसका सही समाधान कर लिया गया तो ठीक, नहीं तो संपूर्ण जीव-जगत् एक पूर्ण विराम की स्थिति में आकर खड़ा हो जाएगा। प्रश्नवाचक या पूर्ण विराम !!-कौन-सा विकल्प चुनेंगे हम ?
बढ़ती जनसंख्या व औद्योगीकरण के कारण तकनीकी सभ्यता के द्वारा वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त अपने में चाहे अस्थायी रूप से हम सफल क्यों न हो जाएँ; परंतु हमारा स्थायी विकास संदिग्ध है, क्योंकि पारिस्थितिकी-व्यवस्था में असंतुलन द्रुत गति से हो रहा है। हमारी जल्दबाजी और उतावले ढंग से पर्यावरण पर विजय पाने की लालसा ने प्रकृति द्वारा निर्मित पारिस्थितिकी-तंत्र पर प्रतिकूल असर डाला है जो किसी समाज या राष्ट्र तक सीमित न रहकर अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संतुलन बिगाड़ रहा है। मानव और प्रकृति की परस्पर अंतरनिर्भरता एवं सद्भावनाओं को समाप्त करने से हमारा पारिस्थितिकी-तंत्र डगमगा रहा है। कालांतर में भी यदि मानव की यही अभिवृत्ति बनी रही तो प्रकृति द्वारा करोड़ों वर्षों की यात्रा के उपरांत बना प्राकृतिक पर्यावरण नष्ट हो जाएगा। मैंन मेड ईको सिस्टम’ में मानव अपने अस्तित्व को उस समय खतरे में डाल देगा, जब तीव्र गति से हो रहे जल, नभ, थल, वायु, ध्वनि आदि के प्रदूषण बढ़ते-बढ़ते ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी कि मानव के स्वयं घुटकर मृतप्राय हो जाने की प्रबल संभावनाएँ स्पष्ट नजर आने लगेंगी। अतः समय रहते पारिस्थितिकी-तंत्र मानव समाज, जो एक-दूसरे पर आश्रित रहा है, उसे बनाए रखना होगा और प्रकृति का अत्यधिक दोहन न करने की चेतना का विकास करने हेतु विश्वव्यापी अभियान छेड़ना होगा, जिससे प्रकृति एवं जीवधारी अपना कार्य संतुलित ढंग से करते रहें और एक-दूसरे के सहसंबंध निरंतर अग्रसर हो सकें। मानव मात्र को चाहिए कि वे पारिस्थितिकी नियमों का अपने हित में पालन सोच-विचारकर करें। प्रगति के नाम पर प्रकृति पर नियंत्रण करने की हठधर्मी में ढील देते हुए अपन आपको प्रकृति का अभिन्न अंग समझने का प्रयास करना होगा, ताकि पारिस्थितिकी-तंत्र एवं समाज के बीच परस्पर संतुलन बना रह सके।