Hindi, asked by bivashshil0775, 7 months ago

विकर्ण ने अपना विरोध किस प्रकार प्रकट किया?

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Answered by akankshakamble6
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विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 68 के अनुसार विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध का वर्णन इस प्रकार है[1]- विकर्ण का सभासदों से द्रौपदी के प्रश्नों का उत्तर देने की विनती करना वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! पाण्‍डवों को दुखी और पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को घसीटी जाती हुई देख धृतराष्‍ट्र नन्‍दन विकर्ण ने यह कहा-‘भूमिपालो! द्रौपदी ने जो प्रश्‍न उपस्थित किया है, उसका आप लोग उत्तर दें। यदि इसके प्रश्‍न का ठीक-ठीक विवेचन नहीं किया गया, तो हमें शीघ्र ही नरक भोगना पड़ेगा। ‘पितामह भीष्‍म और‍ पिता धृतराष्‍ट्र –ये दोनों कुरुवंश के सबसे वृद्ध पुरुष हैं। ये तथा परम बुद्धिमान विदुरजी मिलकर कुछ उत्तर क्‍यों नहीं देते ? ‘हम सबके आचार्य भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ये दोनों ब्राह्मण कुल के श्रेष्‍ठ पुरुष हैं। ये दोनों भी इस प्रश्‍न पर अपने विचार क्‍यों नहीं प्रकट करते ? ‘जो दूसरे राजालोग चारों दिशाओं से यहाँ पधारे हैं, वे सभी काम और क्रोध को त्‍यागर अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्‍न का उत्तर दें। ‘राजाओं! कल्‍याणी द्रौपदी नें बार-बार जिस प्रश्‍न को दुहराया है, उस पर विचार करके आप लोग उत्तर दें, जिससे मालूम हो जाय कि इस विषय में किसका क्‍या पक्ष (विचार) है’।[1] इस प्रकार विकर्ण ने उन सब सभासदों से बार-बार अनुरोध किया; परंतु उन नरेशों ने उस विषय में उससे भला-बुरा कुछ नहीं कहा। उन सब राजओं से बार-बार आग्रह करने पर भी जब कुछ उत्तर नहीं मिला,[2]- विकर्ण का द्रौपदी के पक्ष में धर्मसंगत बात कहना तब विकर्ण ने हाथ पर हाथ मलते हुए लंबी साँस खींचकर कहा- ‘कौरवो तथा अन्‍य भूमिपालो! आप लोग द्रौपदी के प्रश्‍न-पर किसी प्रकार का विचार प्रकट करें या न करें, मैं इस विषय में जो न्‍यायसंगत समझता हूँ वह कहता हूँ।’ नरश्रेष्‍ठ भूपालो! राजाओं के चार दुर्व्‍यसन बताये गये हैं - शिकार, मदिरापान, जूआ तथा विषय भोग में अत्‍यन्‍त आसक्ति। ‘इन दुर्व्‍यसनों में आसक्‍त मनुष्‍य धर्म की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करने लगता है। इस प्रकार व्‍यसनासक्‍त पुरुष के द्वारा किये हुए‍ किसी भी कार्य को लोग सम्‍मान नहीं देते हैं। ‘ये पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर द्यूतरूपी दुर्व्‍यसन में अत्‍यन्‍त आसक्‍त हैं। इन्‍होंने धूर्त जुआरियों से प्रेरित होकर द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया है। ‘सती-साध्‍वी द्रौपदी समस्‍त पाण्‍डवों की समानरूप से पत्‍नी है, केवल युधिष्ठिर की ही नहीं है। इसके सिवा, पाण्‍डुकुमार युधिष्ठिर पहले अपने आपको हार चुके थे, उसके बाद उन्‍होंने द्रौपदी को दाँव पर रक्‍खा है। ‘सब दाँवों को जीतने की इच्‍छा वाले सुबलपुत्र शकुनि ने ही द्रौपदी को दाँव पर लगाने की बात उठायी है। इन सब बातों पर विचार करके मैं द्रुपदकुमारी कृष्‍णा को जीती हुई नहीं मानता’। यह सुनकर सभी सभासद विकर्ण की प्रशंसा और सुबलपुत्र शकुनि ने निन्‍दा करने लगे। उस समय वहाँ बड़ा कोलाहल मय गया। उस कोलाहल शान्‍त होने पर राधानन्‍दन कर्ण क्रोध से मूर्च्छित हो उसकी सुन्‍दर बाँह पकड़कर इस प्रकार बोला।[2]

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