विनोबा जी ने व्रत लिया था ----
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भूदान आंदोलन के जनक भारत रत्न आचार्य विनोबा भावे
Special Daysव्रत-त्यौहार, सितारों के जन्म दिन, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के घोषित दिनों पर आधारित
आज देश में हर तरफ अन्ना हजारे की धूम है. अन्ना एक ऐसे इंसान हैं जिन्होंने अपना निजी फायदा-नुकसान एक तरफ कर देश की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करने की ठानी है. ऐसा करने वाले अन्ना पहले नहीं हैं. अन्ना से पहले भी देश में कई महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने बलिदान और कर्म भावना से देशभक्ति की नई मिसाल पैदा की थी. ऐसे ही एक महापुरुष थे आचार्य विनोबा भावे. ‘भूदान यज्ञ' नामक आन्दोलन के संस्थापक और महात्मा गांधी के प्रिय अनुयायियों में से एक विनोबा भावे को देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान “भारत रत्न” प्राप्त है जो उनके योगदान की निशानी है.
विनोबा भावे का जीवन
विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को गाहोदे, गुजरात में हुआ था. विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था. उनकी माता का नाम रुक्मणी देवी और पिता का नाम नरहरि भावे था. उनके घर का वातावरण भक्तिभाव से ओतप्रोत था.
उन्होंने अपनी माता रुक्मणी देवी के सुझाव पर गीता का मराठी अनुवाद तैयार किया. मां से ब्रह्मचर्य की महत्ता जब सुनी तो उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए विवाह नहीं किया. उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता लाने के प्रयत्नों में लगा दिया.
विनोबा भावे और गांधी जी का साथ
विनोबा ने 'गांधी आश्रम' में शामिल होने के लिए 1916 में हाई स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. गाँधी जी के उपदेशों ने भावे को भारतीय ग्रामीण जीवन के सुधार के लिए एक तपस्वी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया.
1920 और 1930 के दशक में भावे कई बार जेल गए और 1940 के दशक में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण पांच साल के लिए जेल जाना पड़ा. उन्हें सम्मानपूर्वक आचार्य की उपाधि दी गई.
भूदान आंदोलन की शुरूआत
आजादी के बाद विनोबा जी के मन में भूदान का विचार आया. पवनार से 325 किलोमीटर चलकर विनोबाजी आंध्रप्रदेश के तेलंगाना गए. वहां उन्हें ऐसे किसान मिले जिनके पास जमीन नहीं थी. उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी. पोच्चंपल्लि के भू स्वामी रामचंद्र रेड्डी से विनोबा जी ने भूदान करने का आग्रह किया ताकि बटाई पर किसानी करने वाले आजीविका अर्जित कर सकें. वह तैयार हो गए. विनोबा जी ने लिखा पढ़ी कराने के बाद 100 एकड़ भूमि वहीं के भूमिहीन किसानों को दे दी. अन्य लोगों ने भी श्री रेड्डी का अनुसरण किया, जिससे “भूदान आंदोलन” चल पड़ा. विनोबा जी ने किसानों से छठा भाग देने का अनुरोध किया. पैदल यात्रा करते उन्होंने सारे देश में एक क्रांति का प्रवर्तन किया. उन्होंने राजनीति में जाना स्वीकार नहीं किया और ऋषि परंपरा में संपूर्ण पृथ्वी को 'सर्व भूमि गोपाल की' कहा और पृथ्वी के निवासियों को अपना कुटुंब बताया. इस चिरंतन भूदान यात्रा के दौरान ही 19 मई, 1960 को चंबल के खूंखार बागी डाकूओं का आत्मसमर्पण भी करा दिया. मानसिंह गिरोह के 19 डाकू विनोबा की शरण में आ गए.
खुद हमेशा राजनीति से दूर रहने वाले विनोबा भावे को तब बड़ा झटका लगा जब उनके अनुयायी राजनीति में शामिल होने लगे. 1975 में पूरे वर्ष भर अपने अनुयायियों के राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होने के मुद्दे पर भावे ने मौन व्रत रखा था.
गांधी जी के अनुयायी होने के कारण विनोबा भावे ने हमेशा अहिंसा का रास्ता अपनाया. 1979 में उनके एक आमरण अनशन के परिणामस्वरूप सरकार ने समूचे भारत में गो-हत्या पर निषेध लगाने हेतु क़ानून पारित करने का आश्वासन दिया.
इमरजेंसी का समर्थन
एक समय ऐसा भी आया जब राजनीति से दूर रहने वाले इस महापुरुष के एक बयान ने बहुत हल्ला मचा दिया था. 1975 में जब भारत में इमरजेंसी घोषित की गई थी तब विनोबा भावे ने इसका समर्थन करते हुए इमरजेंसी को अनुशासन पर्व घोषित किया था.
विनोबा भावे को मिले पुरस्कार
विनोबा को 1958 में प्रथम रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से 1983 में मरणोपरांत सम्मानित किया.
नवंबर 1982 में जब उन्हें लगा की उनकी मृत्यु नजदीक है तो उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया जिसके परिणामस्वरुप 15 नवम्बर, 1982 को उनकी मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु से देश ने एक महान नेता खो दिया था. उन्होंने मौत का जो रास्ता तय किया था उसे प्रायोपवेश कहते हैं जिसके अंतर्गत इंसान खाना-पीना छोड़ अपना जीवन त्याग देता है.