Hindi, asked by simrah7673, 1 year ago

विनायक दामोदर सावरकर - पर निबंध लिखें

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Answered by krushika615
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आरम्भिक जीवन- यह उस काल की गाथा है जब हमारा भारत अंग्रेज साम्राज्यवादियों की दासता की श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ छटपटा रहा था। भारत का जनमानस दासता की उन श्रृंखलाओं को तोड़ने के लिए सब प्रकार के प्रयत्न कर रहा था। 1880 और 1890 का हमारे देश का इतिहास अत्यन्त अन्धकारमय पृष्ठों वाला चल रहा है। इस दशक तक पहुँचते-पहुँचते हमारा देश राजनीतिक दृष्टि से पतित, सामाजिक दृष्टि से अपमानित तथा आर्थिक दृष्टि से सर्वथा क्षीण हो चुका था। यह वह काल था जब स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द और महात्मा राणाडे जैसे अध्यात्मवादी सुधारक अपना कार्य सम्पन्न कर राष्ट्रीय मंच से तिरोहित हो चुके थे। इन लोगों ने भारतीयों को दासता की चिर निद्रा से जगाने का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया था।

इसी प्रकार नामधारी रामसिंह कूका और क्रान्तिकारी वासुदेव बलवन्त फड़े के विद्रोह ने भी भारतीयों की विचारतन्त्री को झकझोरने का कार्य किया था। लोकमान्य तिलक यथाशक्ति अपनी ओर से यत्न कर रहे थे। उधर देश के पूर्वी भाग में बाबू आंनन्दमोहन बोस और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जन-जन में नवजीवन का संचार करने में लीन थे। भारत में क्रान्ति के बीज पुनः पनपने लगे थे। इसलिए भारतीय क्रान्ति को पनपने से पूर्व ही समाप्त कर देने के विचार से अंग्रेज सरकार ने एक कुटिल चाल चली। ब्रिटिश सरकार के सेवानिवृत्त अंग्रेज एवं थोड़े से भारतीय उच्चाधिकारियों के सम्मिलित प्रयास से 28 दिसम्बर, 1885 को इन्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाने में अंग्रेज सरकार का मनोरथ सफल हो गया।

अंग्रेज उच्चाधिकारी वर्ग पिता और भारतीय उच्चाधिकारी वर्ग रूपी माता की मानस सन्तान 'इन्डियन नेशनल कांग्रेस' के जन्मदाता सेवानिवृत्त अंग्रेज उच्चाधिकारी सर ए.ओ. ह्यूम को इसका प्रथम प्रधान नियुक्त किया गया। क्योंकि यह अंग्रेजों द्वारा अंग्रेज सरकार के हित के लिए स्थापित संस्था थी। अतः आरम्भ में इसके अधिवेशनों में सर्वप्रथम अंग्रेज राजा के सुख समृद्धिमय सुदीर्घ जीवन की कामना की भगवान से प्रार्थना की जाती थी। अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वह काल बहुत ही शोक और लज्जा से परिपूर्ण काल था जिसका विकल्प या तो उस स्थिति में सुधार हो सकता था फिर क्रान्ति।

जन्म एवं बाल्यकाल- सन् 1883 में स्वामी दयानन्द अपने पार्थिव जीवन के अन्तिम चरण पर थे और विद्रोही वासुदेव बलवन्त फड़के भारतीय जनतन्त्र की स्थापना का स्वप्न संजोए अदन में समाधिस्थ हो गए थे। इसी काल में 28 मई सन् 1883 को सोमवार को प्रातःकाल 10 बजे हमारा चरित्र नायक वीर विनायक दामोदर सावरकर इस धरा पर अवतीर्ण हुआ था। उसी काल की दो अन्य उल्लेखनीय घटनाएँ हैं- सावरकर के जन्म से 75 दिन पूर्व लन्दन में सर्वहारा वर्ग के कथित मसीहा कार्ल मार्क्स का इस संसार से चुपचाप विदा ले जाना और विनायक के जन्म के 62 दिन बाद इटली के भाग्य विधाता मुसोलिनी का जन्म होना।

सावरकर का जन्म उस चितपावन ब्राह्मण कुल में हुआ था जिसने इससे पूर्व भी अनेक देशभक्त महापुरुषों को जन्म दिया था। मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ, 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानायक नाना साहब, प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वासुदेव बलवन्त फड़के, प्रख्यात चाफेकर बन्धु, महादेव गोविन्द राणाडे, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, ये सभी जिन्होंने स्वतन्त्रता देवी की कीर्तिपताका पहराने का संकल्प लिया था, उसी चितपावन कुल में उत्पन्न हुए थे। कालान्तर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भी उसी कुल के दीपक बने। वीर विनायक सावरकर के पूर्वज मूलतया महामुनि परशुराम की लीलास्थली कोंकण के निवासी थे।

कोंकण में उनके पूर्वजों की अच्छी ख्याति थी और अपनी विद्वता के लिए वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। दामोदर पन्त की चार सन्तान थीं-तीन पुत्र तथा एक कन्या। सबसे बड़े पुत्र का नाम गणेश, उसके बाद विनायक, फिर कन्या मैना और सबसे छोटे थे नारायण। देशभक्ति और स्वाभिमान तो इन चारों को ही घुट्टी में मिला था।

सावरकर दम्पति रामायण और महाभारत का नित्य प्रति अध्ययन और पाठ किया करते थे। उनकी कहानियाँ अपने बच्चों को सुनाना उनका नित्य का नियम था। इसके अतिरिक्त वे छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा पेशवाओं की वीर गाथाएँ एवं वीरता से परिपूर्ण लावणी और पोवाड़े भी अपनी सन्तति की नियमित रूप से सुनाते तथा उन्हें कंठस्थ करने के लिए प्रेरित करते थे। समय-समय पर माता राधाबाई अपने पुत्र गणेश को कहती रहती थीं कि वह अपने भाई-बहिनों को रामायण और महाभारत पढ़कर सुनाए। इन सब गाथाओं, आख्यानों और कविताओं का हमारे चरित्र नायक विनायक के विकास में बड़ा योगदान था। छहः वर्ष की आयु में बालक विनायक को गाँव की पाठशाला में प्रविष्ट करा दिया गया। शीघ्र ही विनायक के भीतर विद्यमान प्रतिभा प्रकट होने लगी। ज्यों-ज्यो

Answered by ItsShree44
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तुजसाठी मरण ते जनन ।

तुजवीण जनन ते मरण ।

असे स्वतंत्रतादेवीला सांगणारा तिचा सुपुत्र हाच खरा स्वातंत्र्यवीर - विनायक दामोदर सावरकर. सावरकरांनी आपल्या 'माझे मृत्युपत्र' या कवितेत भारतमातेला सांगितलंय की, आम्ही तिघे भाऊ तुझ्या स्वातंत्र्यासाठी झगडत आहोत. पण आम्ही सात भाऊ असतो तरी आम्ही सातहीजण तुझ्यासाठी बळी गेलो असतो. स्वातंत्र्यसंग्रामात उडी घेणे हे 'सतीचे वाण आहे, याची त्यांना पूर्ण कल्पना होती. पण अगदी विद्यार्थिदशेपासूनच हा त्यांच्या मनाचा निग्रह होता.

इ. स. १८८३ मध्ये नाशिकजवळील भगूर इथे त्यांचा जन्म झाला होता. इटलीचा राष्ट्रपुरुष जोसेफ मॅझिनी हा त्यांचा स्फूर्तिदाता होता. भगतसिंग, राजगुरू, सुखदेव यांनी स्वातंत्र्य मिळवण्यासाठी स्वीकारलेला मार्ग सावरकरांना खूप आवडला. पुण्याला महाविद्यालयीन शिक्षण घेत असतानाच सावरकरांनी विदेशी कपड्याची होळी केली होती. बी. ए. झाल्यानंतर सावरकर बॅरिस्टर होण्यासाठी लंडनला गेले. तेथे समविचारी तरुणांची एक क्रांतिकारक गुप्त संघटना 'अभिनव भारत' सावरकरांनी निर्माण केली. एवढंच नव्हे, तर बॉम्ब तयार करण्याची पद्धतही मराठीत भाषांतर करून त्यांनी भारतात पाठवली.

सावरकरांच्या या कृत्यांचा ब्रिटिशांनी धसका घेतला. याच काळात मदनलाल धिंग्रा या क्रांतिकारक तरुणाने कर्झन वायली या ब्रिटिश अधिकाऱ्याची गोळ्या झाडून हत्या केली. या प्रकरणी ब्रिटिश सरकारने सावरकरांना लंडन येथे अटक केली. त्यांना भारतात आणले जात असता सावरकरांनी मार्सेलिस येथे समुद्रात उडी टाकून फ्रान्सचा किनारा गाठला. १९१० मध्ये त्यांना देशद्रोहाच्या आरोपाखाली काळ्या पाण्याची शिक्षा ठोठावण्यात आली व अंदमानच्या काळ्या कोठडीत रवाना केले गेले. सावरकरांनी काळ्या पाण्याच्या शिक्षेत अतोनात हाल सहन केले. पण त्यांच्या मनातील देशभक्ती तसूभरही कमी झाली नाही. त्यांची 'माझी जन्मठेप' व 'काळे पाणी' ही पुस्तके त्यांनी देशप्रेमाखातर किती साहिले याची साक्ष देतात. सावरकरांना उत्तुंग कल्पनाशक्ती आणि अफाट प्रतिभेचे वरदान लाभलेले होते. मातृभूमीच्या स्वातंत्र्याची आस त्यांच्या काव्यातून, लेखनातून आणि भाषणातून व्यक्त होत असे. 'जयोस्तुते' 'सागरा प्राण तळमळला' यांसारखी अनेक प्रेरणादायी काव्ये, ‘विनायक' वृत्ताची निर्मिती करणारे कमला' हे महाकाव्य, ‘शतजन्म शोधताना 'सारखे भावकाव्य त्यांनी रचले. त्यांचे लेख, त्यांची नाटके त्यांच्या जाज्वल्य देशभक्तीचे दर्शन घडवतात. बडोदा इथे झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. मराठी भाषाशुद्धीसाठीही स्वातंत्र्यवीरांनी खूप प्रयत्न केले व मराठी भाषेत अनेक नवीन शब्दांची भर घातली.

आपल्या उर्वरित आयुष्यात सावरकरांनी 'हिंदू महासभे'चे व अस्पृश्यता निवारणाचे काम केले. १९६६ साली स्वातंत्र्यवीरांनी या स्वतंत्र भारतात आपल्या देहाचा त्याग केला. स्वातंत्र्यवीर सावरकर हे त्यांच्या देशप्रेमातून व साहित्यातून अमर झाले आहेत

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