विनय के पद
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस' कोउ नाहीं।।
जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो गति देत गीध सबरी कहूँ प्रभु न बहुत जिय जानी।।
जो संपत्ति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्ही।
सो संपदा-विभीषण कहँ अति सकुच सहित प्रभु दीन्ही।।
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ।। 1 ।।
जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि वैरी सम जपि परम सनेही।।
तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो, कंत' ब्रज बनितह्नि', भए-मुद मंगलकारी।।
नाते नेह राम के मनियत, सुहुद सुसेव्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँख जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं।।
तुलसी सो सब भाँति परमहित, पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो।। 2 ।।
-तुलसीदास
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