विनय
साधे
अब मैं राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि
बान।
ताकै
मैं भाज्यौ चाहत,
ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ
कौन उबारै प्रान?
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान।
सूरदास लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान।।1।।
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