विप्र ने किस चालाकी से शंकर को गुलाम बना लिया?
पाठ – सवा सेर गेहूं – मुंशी प्रेमचंद
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शंकर एक किसान :
किसी गाँव में शंकर नाम का एक किसान था। वह अपने काम से काम रखता था, वह सीधा सादा और गरीब था। वह किसी के भी लेन-देन से दूर रहता था। व्यवहार में सरल; भोजन-अशन में सादा, जो मिला खा लिया। परन्तु द्वार पर आए अतिथि उसके लिए भगवान थे। स्वयं भूखा रह लेता, परन्तु आगन्तुक साधु-संन्यासियों की सेवा में दत्तचित्त रहता था। एक दिन घर आए हए महात्माओं के लिए घर में गेहूँ का आटा नहीं था। घर में सिर्फ जौ का ही आटा था। अतिथियों को तो गेहूँ का ही भोजन कराना है। अतः वह गाँव भर में आटे की तलाश में गया। पूरे गाँव में आटा नहीं मिला।
गाँव का महाराज :
गाँव के महाराज से सवा सेर गेहूँ लिए, स्त्री ने आटा तैयार किया। महात्मा लोग भोजन करके आशीर्वाद देकर अगले दिन प्रात:काल चल दिए।
महाराज की खलिहानी :
महाराज वर्ष में दो बार खलिहानी लेते थे। शंकर ने सोचा कि इन्हें सेवा सेर गेहूँ क्या हूँ, पसेरी भर से ज्यादा खलिहानी दे दूँगा। दोनों ही आपस में समझ लेंगे। चैत के महीने में महाराज पहुँचे, डेढ़ पसेरी गेहूँ दे दिए गए। शंकर ने सवा सेर गेहूँ से स्वयं को उऋण समझ लिया। सवा सेर गेहूँ की चर्चा महाराज ने कभी नहीं की। महाराज अब महाजन होने लगे।
शंकर के घर की दशा :
शंकर किसान से मजदूर हो गया। छोटा भाई मंगल अलग हो गया। भाई के अलग होने पर शंकर फूट-फूट कर रोने लगा। कुल मर्यादा का वृक्ष उखड़ने लग गया। सात दिन लगातार एक दाना भी उसके मुंह तक नहीं गया। दिन में धूप में काम करता। मुँह लपेटकर रात को सोता। रक्त जल गया मांस मञ्जा घुल चुकी। खेती मान-मर्यादा के लिए रह गई। सब चौपट हो चला। सात वर्ष बीत चुके। शंकर मजदूरी से लौटकर आ रहा था। महाराज ने बुलाया और कहा कि तू अपने बोज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे हिसाब में साढ़े पाँच मन गेहूँ बाकी पड़े हैं। तू देने का नाम ही नहीं लेता, हजम करना चाहता है।
सवा सेर का साढ़े पाँच मन गेहूँ :
शंकर को अचम्भा हुआ। उसने कहा कि मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए जो साढ़े पाँच मन हो गए। मुझ पर किसी का भी एक दाना व एक पैसा भी उधार नहीं है। महाराज ने कहा कि तुम अपनी नीयत के कारण कष्ट भोग रहे हो तभी तो खाने को नहीं जुड़ता। तब फिर महाराज ने सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया।
शंकर ने कहा कि मैं बढ़-चढ़कर खलिहानी देता रहा। तुम्हारे सवा सेर गेहूँ अभी चुकता नहीं हुए। महाराज ने कहा-बख्शीस सौ-सौ हिसाब जौ-जौ। व्यर्थ की बहस छोड़, मेरा उधार दे।
बंधुआ मजदूर :
शंकर काँप गया। मेहनत मजदूरी करके साल भर में 60 रुपये जुड़े, उन्हें जमा करा दिया, शेष रुपया दो-तीन माह में लौटा देने का वादा किया। पन्द्रह रुपए शेष रह गए। उन्हें चुका नहीं सका। शंकर महाराज के यहाँ बंधक मजदूर हो गया। उसे आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए, ओढ़ने को साल में एक कम्बल मिला करता। एक मिरजई बनवा देता। शंकर महाराज की गुलामी में बँध गया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र भर के लिए गुलामी की बेड़ियों में बँध गया।
उपसंहार :
शंकर इस सब को पूर्व जन्म का संस्कार मानता था। वे गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति पूरे जीवन उसके सिर से नहीं उतरे। शंकर महाराज के यहाँ बीस वर्ष तक गुलामी करता रहा। संसार से चल बसा। फिर भी एक सौ बीस रुपये उसके सिर पर सवार थे। शंकर के जवान बेटे को गरदन पकड़कर अपने यहाँ शंकर के ऋण को चुकाने के लिए बंधक मजदूर बनाया। वह आज भी काम करता है। ऐसे शंकरों और महाराजों से दुनिया भरी पड़ी है।
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