वैश्विक महामारी कोरोना के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में ' इंटरनेट सेवा ' के योगदान के विषय में लेख
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के पहले महानिदेशक ब्रॉक चिशहोम, जो कि एक मनोरोग चिकित्सक भी थे, की प्रसिद्ध उक्ति है : ‘बगैर मानसिक स्वास्थ्य के, सच्चा शारीरिक स्वास्थ्य नहीं हो सकता है.’
उनके ये शब्द इस विचार का समर्थन करते हैं. सालों के रिसर्च के बाद इस बात को लेकर कोई शक नहीं रह गया है कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बुनियादी तौर पर और अभिन्न रूप से आपस में जुड़े हुए हैं.
आज की तारीख में हालांकि किसी समाचार को पढ़ने के लिए कोविड-19 को लेकर सही और फर्जी सूचनाओं की बाढ़ से होकर गुजरना पड़ता है, लेकिन इस जारी महामारी के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पहलू के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं हैं.
यह आश्चर्यजनक है क्योंकि वैज्ञानिकों ने यह दर्ज किया है कि ऐतिहासिक रूप से संक्रमणकारी महामारियां आम लोगों में चिंता और घबराहट को बड़े पैमाने पर बढ़ाती हैं.
नया रोग अपनी प्रकृति में अपरिचित होता है और इसके
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Explanation:
कोरोना महामारी के दौरान इंटरनेट कई लोगों के लिए लाइफ़लाइन बन गया है. करोड़ों लोगों को घर से काम करने, मेडिकल सेवाएं लेने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एकमात्र ज़रिया इंटरनेट ही रह गया है. कोरोना वायरस ने इंटरनेट पर हमारी निर्भरता को उजागर तो किया ही है, इसे मानवाधिकार की तरह देखे जाने वाले अभियान को भी प्रोत्साहन दिया है.
कोरोना महामारी के दौरान इंटरनेट कई लोगों के लिए लाइफ़लाइन बन गया है. करोड़ों लोगों को घर से काम करने, मेडिकल सेवाएं लेने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एकमात्र ज़रिया इंटरनेट ही रह गया है. कोरोना वायरस ने इंटरनेट पर हमारी निर्भरता को उजागर तो किया ही है, इसे मानवाधिकार की तरह देखे जाने वाले अभियान को भी प्रोत्साहन दिया है.लेकिन कई लोगों के पास हाई स्पीड ब्रॉडबैंड या तो उपलब्ध नहीं है या उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो एक कनेक्शन ले सकें.
कोरोना महामारी के दौरान इंटरनेट कई लोगों के लिए लाइफ़लाइन बन गया है. करोड़ों लोगों को घर से काम करने, मेडिकल सेवाएं लेने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एकमात्र ज़रिया इंटरनेट ही रह गया है. कोरोना वायरस ने इंटरनेट पर हमारी निर्भरता को उजागर तो किया ही है, इसे मानवाधिकार की तरह देखे जाने वाले अभियान को भी प्रोत्साहन दिया है.लेकिन कई लोगों के पास हाई स्पीड ब्रॉडबैंड या तो उपलब्ध नहीं है या उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो एक कनेक्शन ले सकें.इंटरनेट के लिए छत पर जाने को मजबूर छात्र
कोरोना महामारी के दौरान इंटरनेट कई लोगों के लिए लाइफ़लाइन बन गया है. करोड़ों लोगों को घर से काम करने, मेडिकल सेवाएं लेने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एकमात्र ज़रिया इंटरनेट ही रह गया है. कोरोना वायरस ने इंटरनेट पर हमारी निर्भरता को उजागर तो किया ही है, इसे मानवाधिकार की तरह देखे जाने वाले अभियान को भी प्रोत्साहन दिया है.लेकिन कई लोगों के पास हाई स्पीड ब्रॉडबैंड या तो उपलब्ध नहीं है या उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो एक कनेक्शन ले सकें.इंटरनेट के लिए छत पर जाने को मजबूर छात्रकेरल की रहने वालीं 20 साल की छात्रा नमिता नारायण फ़ोन और इंटरनेट की ख़राब कनेक्टिविटी से परेशान थीं. उनके मुताबिक, "मैंने अपने घर के आसपास और पड़ोस में कई जगहों पर इंटरनेट इस्तेमाल करने की कोशिश की, लेकिन कहीं भी अच्छा सिगनल नहीं मिला.
कोरोना महामारी के दौरान इंटरनेट कई लोगों के लिए लाइफ़लाइन बन गया है. करोड़ों लोगों को घर से काम करने, मेडिकल सेवाएं लेने और एक दूसरे से जुड़े रहने का एकमात्र ज़रिया इंटरनेट ही रह गया है. कोरोना वायरस ने इंटरनेट पर हमारी निर्भरता को उजागर तो किया ही है, इसे मानवाधिकार की तरह देखे जाने वाले अभियान को भी प्रोत्साहन दिया है.लेकिन कई लोगों के पास हाई स्पीड ब्रॉडबैंड या तो उपलब्ध नहीं है या उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो एक कनेक्शन ले सकें.इंटरनेट के लिए छत पर जाने को मजबूर छात्रकेरल की रहने वालीं 20 साल की छात्रा नमिता नारायण फ़ोन और इंटरनेट की ख़राब कनेक्टिविटी से परेशान थीं. उनके मुताबिक, "मैंने अपने घर के आसपास और पड़ोस में कई जगहों पर इंटरनेट इस्तेमाल करने की कोशिश की, लेकिन कहीं भी अच्छा सिगनल नहीं मिला.नमिता आगे बताती हैं, "जब भी कोई फ़ोन आता था, बात करने के लिए घर के बाहर भागना पड़ता था."