१) विशव प्रेम क्या है
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एकमात्र विश्व-प्रेम ही संसार में शक्ति का संचार है। ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है। वेद में भी कहा गया है तो संत कवि तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में कहा है-'सीय राम मैं सब जग जानी, करहुं प्रनाम जोरि जुग पानी'। ईश्वर को सब प्राणियों के अंदर समभाव से देखते हुए हम सबसे प्रेम करें, किसी से द्वेष-भाव न रखें
यह सारी सृष्टि आनन्द से ही उत्पन्न हो रही है। आनन्द ही इसका उद्देश्य है। उपनिषदों में इस सृष्टि को उस रस स्वरूप से ओतप्रोत बताया है। प्रत्येक मनुष्य के हृदय में उस आनन्द स्वरूप का निवास है और आनन्द की पूर्ण प्राप्ति ही उसका चरम लक्ष है। मनुष्य के हृदय में विकारों के बीच भी वह रस स्वरूप निवास करता है जो सत्य है और चिरस्थायी है। किन्तु बहुत कम लोग उस आनन्द स्वरूप को रस स्वरूप परम सत्य का अपने में दर्शन कर पाते हैं। अधिकाँश उसे भुलाकर यत्र, तत्र दुःख, पीड़ा, अशान्ति, कलह की नारकीय यातनायें सहते रहते हैं।