वैदिक कालीन महिलाओं की स्थिति को बताइए
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Answer:औरतों के पक्ष में लिखना मेरे लिए बडे़ गौरव की बात है सदियों से उपेक्षाओं और त्रासदी की मार झेल रही औरतों को सम्मान का दर्जा/हक दिला पाने में जिस प्रकार की कोशिशें की जा रही हैं उसमें अंश मात्र भी मेरे योगदान से ये औरतें अपने आपको उपेक्षाओं से बचा सकें, तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। इस आलोक में देखा जाए तो समाज की बात यथार्थ रूप से बेमानी लगने लगती है, जिस समाज में नारी को देवी का ओहदा हासिल है वहीं नारी के साथ अत्याचारों की लंबी कतार भी खड़ी दिखाई देती है। ये बात सही है कि पूर्व काल में नारी का अधिपत्य था। नारी ही पुरूषों, बच्चों और बुर्जुगों का पालन-पोषण करती रही है। बच्चों की पहचान भी माता के नाम से होती थी। वक्त के परिवर्तन के साथ पुरूषों ने नारी की सत्ता का दोहन कर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। अपनी सत्ता छीन जाने के बाद नारी के इतिहास में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। वैदिक काल में ‘‘महिलाओं की स्थिति समाज में काफी ऊंची थी और उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे धार्मिक क्रियाओं में भाग ही नहीं लेती थीं बल्कि, क्रियाएं संपन्न कराने वाले पुरोहितों और ऋषियों का दर्जा भी उन्हें प्राप्त था।’’ उस समय महिलाएं धर्म शास्त्रार्थ इत्यादि में पुरूषों की तरह ही भाग लेती थी। उन्हें ‘‘गृहणी, अर्धांगिनी कह कर संबोधित किया जाता था। पुत्र-पुत्री के पालन-पोषण में कोई भेदभाव नहीं किया जाता था।’’ उपनयन संस्कार और शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी स्त्रियों को पुरूषों की भांति समान रूप से प्राप्त था। तत्कालीन युग में महिलाएं सार्वजनिक जीवन में भाग लेती थी। ‘‘अस्पृश्यता, सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथा का प्रचलन भी इस युग में नहीं था।’’ ‘‘महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी, संभवतः उनको अपना जीवन साथी के चुनाव का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।’’ ‘‘यद्यपि विधवा पुर्नविवाह प्रचलित नहीं था लेकिन विधवाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था और उन्हें अपने पति की सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त था।’’ यूं कहा जा सकता है कि, स्त्रियां किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से पीछे नहीं थी। ‘‘भारतीय समाज के वैदिक काल में नारी को पुरूषों के समाज में शिक्षा, धर्म, राजनीति और सम्पत्ति के अधिकार एवं सभी मामलों में समानाधिकार प्राप्त थे।’’ इसके बाद धीरे-धीरे नारी को प्रदत्त अधिकारों में हा्रस बढ़ता गया और नारी को प्रदान अधिकारों, शिक्षा, स्वतंत्रता, धार्मिक अनुष्ठानों आदि से वंचित किया जाने लगा। जिससे वह पूर्ण रूप से पुरूषों पर आश्रित हो गयी। वहीं मनु ने कहा कि ‘‘नारी का बचपन में पिता के अधीन, यौवनवास्था में पति के आधिपत्य में, तथा पति की मृत्यु के उपरांत पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए।’’ इस फतवे के बाद नारी की बची-खुची आजादी का भी हनन हो गया और नारी का स्तर दोयम दर्जे की ओर बढ़ता चला गया। भारतीय इतिहास का वास्तविक काल वैदिक सभ्यता से जुड़ा हुआ है। ‘‘चतुर्वेदों में ऋग्वेद को सबसे अधिक प्राचीन वेद माना है। इसके बाद यजुर्वेद, समार्वेद और अर्थर्ववेद को माना जाता है।’’ ऋग्र्वेद में ब्रम्हज्ञानी पुरूषों के साथ-साथ ब्रम्हवादिनी महिलाओं का भी नाम आता है। इनमें विश्ववारा लोप, मुद्रा, घोषा, इन्द्राणी, देवयानी आदि प्रमुख महिलाएं हैं। ‘‘एक तरफ जहां भारतीय संस्कृति में नारी को सदा ऊंचा स्थान मिला है। नारी को मर्यादा के क्षेत्र में पुरूषों से अधिक श्रेष्ठ माना गया है, तथा स्त्री और श्री में कोई भेद नहीं किया गया है।’’ वहीं उसी नारी के साथ अत्याचारों का सिलसिला शुरू हो चुका था। नारी के ऊपर तरह-तरह की बंदिसें जैसे-पर्दे में रहना, पुरूषों की आज्ञा का पालन करना, प्रति उत्तर न देना, चारदीवारी में रहना आदि। इन सब बंदिसों ने नारी को नारी से भोग्या के रूप में परिवर्तित कर दिया, तब नारी मात्र संतान पैदा करने की मशीन के रूप में प्रयोग की जाने लगी। द्वापर में द्रौपदी के साथ जैसा हुआ वैसा किसी भी युग की नारी के साथ देखने को नहीं मिलता हैं। वह विवाहिता हुई अर्जुन की, और पांच पाण्डवों में बंटी। किसी वस्तु की तरह जुए में दांव पर लगा दी गई, और हारने के उपरांत दुर्योधन के हाथों में ऐसे सौंप दी गई जैसे किसी कसाई के हाथों में बकरी सौंप दी जाती है।