वृद्धि के साथ स्वर में बदलाव को स्पष्ट कीजिए?
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स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं : फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयंत्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कंपित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है। ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयंत्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं। इसके उपरांत उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपांतर उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दाँत तथा ओंठ करते हैं। इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है l
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जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। स्वरयंत्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।
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