Hindi, asked by daryll3091, 10 months ago

विद्यार्थी जीवन में शिष्टाचार का महत्व

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Answered by SinghAkash2535
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शिष्टाचार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है। विनम्रता, सहजता से वार्तालाप, मुस्कराकर जवाब देने की कला प्रत्येक व्यक्ति को मोहित कर लेती है। जो व्यक्ति शिष्टाचार से पेश आते हैं वे बड़ी-बड़ी डिग्रियां न होने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में पहचान बना लेते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे शख्स से शिष्टाचार और विनम्रता की आकांक्षा करता है।

शिष्टाचार का पालन करने वाला व्यक्ति स्वच्छ, निर्मल और दुर्गुणों से परे होता है। व्यक्ति की कार्यशैली भी उसमें शिष्टाचार के गुणों को उत्पन्न करती है। सामान्यत: शिष्टाचारी व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला होता है। अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी वजह से हुआ है। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की दिव्य योजना का एक अंग है। ऐसे में शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और पूर्णता प्रदान करता है।

यदि व्यक्ति किसी समस्या या तनाव से ग्रस्त है, लेकिन ऐसे में भी वह शिष्टाचार के साथ पेश आता है तो अनेक लोग उसकी समस्या का हल सुलझाने के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं भी समस्या के समाधान तक पहुंच जाता है। शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति अकसर अहंकार, ईष्र्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है। ऐसा व्यक्ति हर जगह अपनी छाप छोड़ता है। कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर जगह वह और उससे सभी संतुष्ट रहते हैं। शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण व सकारात्मक नजरिया रखता है। उसके मन के सद्भाव उसे प्रफुल्लित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान भी अब इस तथ्य को सिद्ध कर चुका है कि अच्छे विचारों का प्रभाव मन पर ही नहीं, बल्कि तन पर भी पड़ता है।

मस्तिष्क की कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं। इसके विपरीत नकारात्मक विचारों का मन व तन पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अच्छे विचारों के सकारात्मक व स्वास्थ्यप्रद और बुरे विचारों के बुरे, नकारात्मक व घातक फल आपको वहन करने ही पड़ेंगे। व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है।

Answered by Anonymous
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Explanation:

जीवन का प्रथम भाग विद्या उपार्जन का काल है। विद्या अध्ययन करने का स्वर्णकाल है। भविष्य का श्रेष्ठ नागरिक बनने की क्षमता और सामर्थ्य उत्पन्न करने की बेला है। अतः विद्यार्थी को विद्या की क्षुधा शांत करने तथा जीवन निर्वाह योग्य बनाने के लिए आदर्श विद्यार्थी बनना होगा। आदर्श विद्यार्थी उत्तम विचारों का संचय करेगा, शुद्र स्वार्थों और दुराग्रहों से मुक्त रहेगा। मन, वचन, कर्म में एकता स्थापित कर जीवन के सत्य स्वरूप को स्वीकार करेगा।

विद्यार्थी का लक्ष्य है विद्या प्राप्ति। विद्या प्राप्ति के माध्यम है गुरुजन या शिक्षक। आज की भाषा में अध्यापक अध्यापक से विद्या प्राप्ति के तीन उपाय हैं- नम्रता, जिज्ञासा और सेवा। गांधी जी कहा करते थे जिनमें नम्रता नहीं आती है वे विद्या का पूरा सदुपयोग नहीं कर सकते। तुलसीदास ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है यथा नवहिं बुध विद्या पावे। अध्यापक के प्रति नम्रता दिखाइए और समझ ना आने वाले प्रश्नों को बार-बार पूछ लीजिए उसे क्रोध नहीं आएगा। वैसे भी नम्रता समस्त सद्गुणों की जननी है। बड़ों के प्रति नम्रता दिखाना विद्यार्थी का कर्तव्य है, बराबर वालों के प्रति नम्रता विनय सूचक है तथा छोटों के प्रति नम्रता कुलीनता का द्योतक है।

जिज्ञासा के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता। यह तीव्र बुद्धि का स्थाई और निश्चित गुण है। पुस्तकों तथा पाठ्यक्रम के प्रति जिज्ञासा भाव विद्यार्थी और विषय को कम करने में सहायक होगा। जिज्ञासा एकाग्रता की जनता की है। अध्ययन के समय एकाग्रचित्तता पाठ को समझने और हृदयंगम करने के लिए अनिवार्य गुण है। पुस्तक हाथ में हो और चित्रों दूरदर्शन के चित्रहार में तो पाठ कैसे स्मरण होगा?

 

सेवा से मेवा मिलती है यह उक्ति जगप्रसिद्ध है। अपने गुरुजनों की सेवा करके विद्या प्राप्ति संभव है। सेवा का रूप आज ट्यूशन भी हो सकता है। यदाकदा अध्यापक द्वारा बताया गया निजी काम भी हो सकता है क्या किसी अन्य साधन से अध्यापक को लाभ पहुंचाना भी हो सकता है। सेवा से विमुख विद्यार्थी अध्यापक का कृपापात्र नहीं बन सकता इसलिए तो संस्कृत की एक पंक्ति में कहा गया है- गुरू शुक्षूषया विद्या पुषकलेन धनेन वा। अर्थात विद्या गुरु की सेवा से या गुरु को पर्याप्त धन देकर अर्जित की जा सकती है।

विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए अन्य आदर्श भी अपनाने होंगे। सर्वप्रथम उसे संयमित आचरण अपनाना होगा। आचरण उसके जीवन को कभी सफल नहीं बनने देगा। मुख्यतः खाने, खेलने और पढ़ने में छात्र को पूर्णता संयम बरतना चाहिए। अधिक भोजन से सांड, अधिक खेलने से शिक्षित और अधिक पड़ने से किताबी कीड़ा बनते हैं। उचित मात्रा में खाने, नियमित रूप से खेलने और पढ़ाई के लिए निश्चित समय देने में ही विद्यार्थी जीवन की सफलता है।

विद्यार्थी को परिश्रमी और स्वाध्याय होना चाहिए। चाणक्य का कथन है- सुखार्थी को विद्या कहां विद्यार्थी को सुख कहां। सुख को चाहे तो विद्या छोड़ दे, विद्या को चाहे तो सुख को त्याग दें।

आदर्श विद्यार्थी को सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। उसे फैशनेबल वस्त्रों, केश विन्यास और सजावट से बचना चाहिए यह बातें विद्यार्थी के मन में एक विचार उत्पन्न करते हैं जिससे विद्यार्थी का जावन न केवल विद्यार्थी खराब होता है अपितु आगे आने वाला स्वर्णिम जीवन भी मिट्टी में मिल जाता है। उच्च विचार रखने से मन में पवित्रता आती है, शरीर स्वस्थ रहता है स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। यदि मस्तिष्क स्वस्थ है तो संसार का कोई भी काम आपके लिए कठिन नहीं है।

आदर्श विद्यार्थी को विद्यालय के प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेना चाहिए। इससे उसके जीवन में सामाजिकता आएगी। स्कूल की साप्ताहिक सभाओं में उसे किसी विषय पर तर्कसंगत, श्रृंखलाबद्ध और श्रेष्ठ विचार प्रकट करना आ जाएगा। रेड क्रॉस की शिक्षा से उसके मन में पीड़ित मानव की सेवा करने का भाव पैदा होगा। स्काउटिंग सामूहिक कार्य करने और देश के प्रति कर्तव्य निभाने का भाव उत्पन्न करेगी।

सदाचार और स्वाबलंबन आदर्श विद्यार्थी के अनिवार्य गुण हैं। यदि उसमें सदाचार नहीं तो वह अपना विद्यार्थी जीवन तो क्या शेष जीवन भी सुंदर और सफल नहीं बना सकता। दूसरे उसमें स्वावलंबन का भाव कूट कूट कर भरा होना चाहिए। अपना काम स्वयं करने की आदत यदि विद्यार्थी जीवन में नहीं पड़ी तो भविष्य में पड़नी कठिन है। मनुष्य को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है यह दिन प्रतिदिन के व्यवहार में हम देखते हैं। एक आदर्श विद्यार्थी को स्वावलंबी बनना चाहिए। संस्कृत साहित्य में आदर्श विद्यार्थी के पांच लक्षण बताए गए हैं

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