विद्यार्थी जीवन पर अनुच्छेद
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मानव जीवन की सबसे अधिक मधुर तथा सुनहरी अवस्था विद्यार्थी जीवन है। सरल निष्कपट मधुर चिंतारहित उत्साह पूर्ण आशाओं-भरी उमंगों की लहरें लेती हुई और उछल कूद करती हुई यह आयु कितनी रसीली है, इसका अनुमान-भर ही किया जा सकता है। विद्यार्थी जीवन सारे जीवन की नींव है। चतुर कारीगर बहुत सावधान तथा प्रयत्नशील रहता है कि वह जिस मकान को बना रहा है, कहीं उसकी नींव कमजोर न रह जाए। नव द्ट होने पर ही मकान धूप, पानी और भूकंप के वेग को सहज ही सह सकता है। इसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए सावधानी से यत्न करते हैं।
भली प्रकार विद्या को ग्रहण करना विद्या का मुख्य कर्तव्य है। इस जीवन में विद्यार्थी अपने लिएअपने माता-पिता तथा परिवार के लिएअपने समाज के लिए और अपने राष्ट्र के लिए तैयार हो रहा होता है, इसलिए उसे सब प्रकार से उसके योग्य बनना होता है। विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह अपने शरीरबुद्धि, मस्तिष्क, मन और आत्मा के विकास के लिए पूरापूरा यन करे।
आलस्य विद्यार्थियों का महान् शत्रु है। जो विद्यार्थी ऊँघ या नींद में अथवा निकम्मे रहकर समय गंवा देते हैं, उन्हें भलीभाँति अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। विद्यार्थी जीवन का एक-एक क्षण अमूल्य है। यह व्यर्थ ही बीत जाए तो बाद में शिक्षा प्राप्ति कठिन हो जाती है। विद्यार्थियों के लिए आराम नहीं है और जो आराम के इच्छुक हैं उनके लिए विद्या नहीं हैव्यर्थ की गणें और अधिक खेलतमाशे भी विद्यार्थी जीवन को चौपट कर डालते हैं।
विद्या को संयमी होना चाहिए इंद्रियों के अधीन रहनेवाले विद्यार्थी अपने जीवन में सफल नहीं हो पाते। जो साज-श्रृंगार की ओर लगा रहता है वह संयमी नहीं हो सकता। स्वादिष्ट और चटपटी वस्तुओं के लोभी विद्यार्थी अपने पर काबू नहीं रख सकतेइसलिए साधारण वस्तुओं से ही संतुष्ट और तृप्त होने का स्वभाव बनाना बहुत उपयोगी होता है। में फंसनेवाले विद्यार्थी अपने पाँव पर आप कुल्हाड़ी मारते हैं।
शिक्षकों तथा माता-पिता के प्रति आदर और श्रद्धा रखना विद्यार्थी के लिए नितांत आवश्यक है। इसके बिना विद्यार्थी भलीभत विद्या प्राप्त नहीं कर सकता। विद्या को जीवन में अच्छे गुण ग्रहण करने तथा अचछी विद्या प्राप्त करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। ये गुण किसी से भी प्राप्त किए जा सकते हैं। इठे अभिमान में पढ़कर अपने को विद्या से वंचित रखना उचित नहीं। जो यह समझता है कि उसे सबकुछ आता है, वह कभी।
उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। असली विद्यार्थी तो वह है जो सदा जिज्ञासु बना रहता है। कई विद्यार्थी माता-पिता के स्नेह का अनुचित लाभ उठाकर उनके धन का बड़ी बेदर्दी से अपव्यय करते हैं। यह अत्यंत अनुचित है। मितव्ययी होना विद्यार्थी का परम कर्तव्य है। अनुशासन प्रियता नियमितता, समय पर काम करना, उदारता, दूसरों की सहायता, सब्बी मित्रता, पुरुषार्थ सत्यवादिता, नीतिज्ञता देशभक्ति, विनोदप्रियता आदि गुणों से विद्यार्थी का जीवन सोने की भाँति चमक जाता है।
निर्लज्जता एक दुर्गुण है, किंतु शर्मीला होना उससे भी बढ़कर दुर्गुण है। विद्या को चाहिए कि वह झूठी शर्म छोड़कर साहसीवीर, स्पष्टवादी और निर्धक बने । शर्मीले विद्या जीवन की दौड़ में सफल नहीं हो पाते।
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विद्यार्थी का जीवन समाज व देश की अमूल्य निधि होता है। विद्यार्थी समाज की रीढ़ है, क्योंकि समाज तथा देश की प्रगति इन्हीं पर निर्भर करती है? अतः विद्यार्थी जीवन पूर्णतया अनुशासित होना चाहिए। वे जितने अनुशासित बनेंगे उतना ही अच्छा समाज व देश बनेगा।
विद्यार्थी जीवन को स्वर्णिम काले है। इसी काल में भावी जीवन की तैयारी की जाती है तथा शक्तियों का विकास किया जाता है। इस काल में बालक के मस्तिष्क रूपी स्लेट पर कुछ अंकित हो जाता है। इसी काल में भावी जीवन की भव्य इमारत की आधारशिला का निर्माण होता है। यह आधारशिला जितनी मजबूत होगी, भावी जीवन उतना ही सुदृढ़ होगा। इस काल में विद्याध्ययन तथा ज्ञान प्राप्ति पर ध्यान न देने वाले विद्यार्थी जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाते।
विद्यार्थी जीवन की महत्ता को जानते हुए प्राचीन काल में विद्यार्थी को घरों से दूर गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करना पड़ता था, गुरु के कठोर अनुशासन को उसे पालन करना पड़ता था। गुरु अपने शिष्यों को तपा-तपाकर स्वर्ण बना देता था।
लेकिन आधुनिक युग में विद्यार्थी विद्यालयों में विद्याध्ययन करता है। आज गुरु ओं के कठोर अनुशासन का अभाव है। आज शिक्षा का संबंध धन से जोड़ा जाता है। विद्यार्थी यह समझता है कि वह धन देकर विद्या प्राप्त कर रहा है। उसमें गुरुओं के प्रति सम्मान के भाव की कमी पाई जाती है। शिक्षा में नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। इन्हीं कारणों से आज विद्यार्थी अनुशासनहीन पश्चिमी सभ्यता का अनुयायी तथा भारतीय संस्कृति से दूर हो गया है।
आदर्श विद्यार्थी के गुणों की चर्चा करते हुए कहा गया है
काक चेष्टा बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिन पंचलक्षणं ॥
अर्थात विद्यार्थी को कौए के समान चेष्ठावान, बगुले के समान एकाग्रचित्त, कुत्ते के समान कम सोने वाला, कम खाने वाला तथा विद्याध्ययन के लिए त्याग करने वाला होना चाहिए। दुर्भाग्य का विषय है कि आधुनिक विद्यार्थी में इन गुणों का अभाव पाया जाता है। विद्यार्थी ही देश के भविष्य होते हैं। इसलिए विद्यार्थियों में विनयशीलता, संयम आज्ञाकारिता जैसे गुणों का विकास किया जाना चाहिए। इसके लिए उन्हें कुसंगति से बचना चाहिए तथा आलस्य का परित्याग करके विद्यार्थी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
आज के विद्यार्थी वर्ग के पतन के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति भी जिम्मेदार है। अतः उसमें परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। शिक्षाविदों का यह दायित्व है कि वे देश की भावी पीढ़ी को अच्छे संस्कार देकर उन्हें प्रबुद्ध तथा कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाएँ तो साथ ही विद्यार्थियों को भी कर्तव्य है कि वे भारतीय संस्कृति के उच्चादर्शों को अपने जीवन में उतारने के लिए कृतसंकल्प हों।