विंध्य के वासी उदासी त्रपोर्टल व्रत धारी महामुनी नारी दुखारे गौतम के उत्तरी तुलसी उनके यह कथा मुनि वृंद सुखारे
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विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे
गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।
ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे,
कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे!!
भावार्थ ► विंध्याचल पर्वत के संत-मुनियों को जब यह पता चलता है कि रामचंद्र जी विंध्य पर्वत पर आ रहे हैं, तो यह समाचार सुनकर पत्नीहीन तपोव्रतधारी सारे संत-मुनि प्रसन्न होते हैं। उनके मन में यह विचार आता है कि जब प्रभु राम एक पत्थर को नारी बना सकते हैं अर्थात जब उन्होंने अहिल्या का पत्थर से उद्धार करके उसे नारी (मनुष्य) बना दिया तो यहाँ विंध्य पर्वत पर तो सब पत्थर ही पत्थर हैं। क्या पता वह इन पत्थरों को नारी बना दें और हम योगियों को भी इस निर्जन वन में चंद्रमुखी समान पत्नी मिल जाए और इस निर्जन वन में मंगल हो जाए।
यहाँ पर तुलसीदास जी ने इस दोहे में हास्य रस का उपयोग किया है, और निर्जन वन में रहने वाले पत्नी सुख से वंचित ऋषि मुनियों की मनोदशा का वर्णन हास्य का भाव देकर किया है।
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