व्याकरण व्यवहार
on लिने पल्लिन जलों के सीलिंग रूप पीले गुब्बारे में से इंडिकर लिखो.
युवती, बहन,
माता, गनी, पली
मुर्गा, गायिका
पल्लिग रूप लिखो-
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शिक्षक बड़े मनोयोग से रात्रि के बीत जाने और सुबह होने पर नायिका के जागने के आग्रह को तमाम रूपकों से विश्लेषित करते हुए समझाते, पर मन ये मानने को तैयार ना होता कि सामान्य सी बात रात के जाने और प्रातः काल की बेला के आने के लिए इतना कुछ घुमा फिरा कर लिखने की जरूरत है। वैसे भी घर पर सुबह ना उठ पाने के लिए पिताजी की रोज़ की उलाहना सुनने के बाद कवि के विचारों से मन का कहाँ साम्य स्थापित हो पाता ? वक़्त बीता, समझ बदली। और आज जब इस कविता को किसी के मुख से सुनता हूँ तो खुद मन गुनगुना उठता है
खग कुल-कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये, अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री।
बीती विभावरी जाग री!
ऍसी मोहक पंक्तियाँ लिखने वाले जयशंकर प्रसाद जी की पृष्ठभूमि क्या रही ये जानने को आपका मन भी उत्सुक होगा। जयशंकर जी के काव्य संकलन पर एक किताब साहित्य अकादमी ने छापी थी। उसके प्राक्कथन में विख्यात साहित्य समीक्षक विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा है
"..........जयशंकर जी का जन्म मात शुल्क दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) के दिन काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। जब पिता का देहावसान हुआ, उस समय प्रसाद की अवस्था केवल ग्यारह वर्ष की थी। कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े भाई भी परलोक सिधार गये और सोलह वर्षीय कवि पर समस्याओं का पहाड़ आ टूटा। आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह जर्जर हो चुकी एक संस्कारी कुल परिवार के लुप्त गौरव के पुनरुद्धार की चुनौती तो मुँह बाये सामने खड़ी ही थी, जिस परिवार पर अन्तहीन मुक़दमेबाज़ी, भारी क़र्ज़ का बोझ, स्वार्थी और अकारणद्रोही स्वजन, तथाकथित शुभचिन्तकों की खोखली सहानुभूति का व्यंग्य...सबकुछ विपरीत ही विपरीत था। कोई और होता तो अपनी सारी प्रतिभा को लेकर इस बोझ के नीचे चकनाचूर हो गया होता। किंतु इस प्रतिकूल परिस्थिति से जूझते हुए प्रसाद जी ने न केवल कुछ वर्षों के भीतर अपने कुटुम्ब की आर्थिक अवस्था सृदृढ़ कर ली, बल्कि अपनी बौद्धिक-मानसिक सम्पत्ति को भी इस वात्याचक्र से अक्षत उबार लिया।
स्वयम् जयशंकर जी ने लिखा है
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