व्यक्तिगत सौंदर्य के महत्व बताएं
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कुरूपता इस विश्व में किसी को भी प्रिय नहीं है। सुन्दर व्यक्ति की ओर ही नहीं वस्तुओं की ओर भी लोग खिंचे चले जाते हैं। प्रातःकाल बगीचे में जब फूल खिले हुए होते हैं तो वे कितने सुन्दर लगते हैं कि आँखें फेरने का जी भी नहीं करता, प्रकृति जहाँ सुरभित, पुष्पित और पल्लवित होती है, झरने झरते हैं, पक्षी कूकते हैं, वहाँ का दृश्य देखकर आत्म विभोर हो उठते हैं। सौंदर्य आत्मा की चिर-पिपासा है। सौंदर्य में ही जीव को आनन्द मिलता है। सुन्दर बनने की अभिलाषा भी आध्यात्मिक है। इसलिए इसे प्राप्त करना मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव ही है।
सौंदर्य की परिभाषा करते हुये प्रसिद्ध कवि कीट्स ने लिखा है—”सौंदर्य ही सत्य है और सत्य ही सौंदर्य है।” इससे वह स्पष्ट है कि सत्यस्वरूप परमात्मा का प्रकाश ही सौंदर्य के रूप में परिलक्षित होती है। अतः सौंदर्य की कामना मनुष्य की आत्मिक आवश्यकता है। सौंदर्य के बिना इस जीवन का महत्व भी कुछ नहीं है। सत्य, शिव और सुन्दर ये सब परमात्मा के ही स्वरूप हैं इसलिए इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना परमात्मा को प्राप्त करने का ही प्रयास हुआ।
भूल यह है कि मनुष्य ने पदार्थ की गढ़न को सौंदर्य मानकर उसका एक काल्पनिक ढाँचा बना कर रक्खा है। परमात्मा अनित्य और सर्वकालिक है इसलिए बदलते रहने वाले स्वरूप को सौंदर्य नहीं मानेंगे। स्वरूप में प्राण की आकर्षक स्थिति का नाम ही सौंदर्य है। सौंदर्य सत्य है इसलिए वह भौतिक नहीं हो सकता, अपवित्र नहीं हो सकता। विचारणीय है कि आज जो सौंदर्य की परिभाषा की जा रही है क्या इसमें भी कुछ सत्यता है।
“आत्मकथा” में महात्मा गान्धी जी ने लिखा है—”वास्तविक सौंदर्य हृदय की पवित्रता में है। बाह्य बनावट और प्रदर्शन से उसका कोई संबंध नहीं है। यह जो रूप की सजावट, वेष विन्यास में विचित्रता का प्रसार बढ़ रहा है यह आन्तरिक सौंदर्य को छलता है, इससे बचना चाहिए।” डॉ0 क्वार्ल्स का भी मत ऐसा ही है। वे लिखते हैं—’सुन्दरता का सद्गुणों के साथ संयोग होना, हृदय का स्वर्ग है। यदि उसके साथ दुर्गुण हैं तो वह आत्मा के नरक के समान है। मूर्ख लोग सौंदर्य के बाह्य स्वरूप की पूजा करते हैं इसलिए वे निन्दा के पात्र बनते हैं।”
मनीषियों की सम्मतियाँ यह व्यक्त करती हैं कि अपनी चमक-दमक बढ़ाकर सुन्दरता का प्रदर्शन भौंड़ी बात है। आजकल जो सौंदर्य प्रसाधनों पर करोड़ों रुपये लोग व्यय कर रहे हैं, उससे दुश्चिन्ताओं और दुर्गुणों के अम्बार ही खड़े हो रहे हैं। जितना इन कृत्रिम साधनों की माँग बढ़ रही है उतनी ही इनकी उपज में धन लगता है। जिस धन से योग्यतायें बढ़ सकती थीं, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थ्य संगठन के लिए शक्ति संचय किया जा सकता था, वही इन प्रसाधनों में अपव्यय होता है। शौकीनी बढ़ती है तो लोग आलसी और अकर्मण्य बनते हैं, समय बरबाद करते हैं और शक्तियों का पतन कर लेते हैं। चमड़ी की चमचमाहट के लिए स्नो, क्रीम, पाउडर, लिपिस्टिक आदि का प्रयोग करके लोग सुन्दर बनने का प्रयत्न करते हैं। अपनी बदसूरती को शृंगार-साधनों से छिपाने का प्रयत्न करना ओछेपन का प्रतीक है। भोले लोग यह भी नहीं समझते कि शारीरिक सौंदर्य स्वास्थ्य पर अवलम्बित है। स्वास्थ्य अच्छा न हुआ तो चमड़ी की सजावट कभी आपको संतोष नहीं दे सकेगी। कृपया इस भूल को समझने और सुधारने का प्रयत्न कीजिए।
आय का एक बड़ा भाग इन बेजान वस्तुओं में खर्च करना अपने अभिभावकों के साथ अत्याचार करना ही ठहराया जायगा। पैसे का सदुपयोग, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा और सद्गुणों के विकास के लिए किया जाता तो गाढ़े परिश्रम की कमाई भी सार्थक होती है। इन बुराइयों पर विचार कीजिए, रोइए और खिन्न हूजिए। कितना अच्छा होता यदि आप आन्तरिक सौंदर्य की महत्ता को समझ पाते?
आप खुलकर काम कीजिए। बँधे-बँधे से न रहिए, अपने हाथ-पाँवों को थोड़ा इधर-उधर हिलाइए डुलाइए। आपका रक्त संचालन ठीक रहेगा, नाड़ियाँ ठीक काम करेंगी, शरीर साफ रहेगा तो आपके शरीर में प्राण और ओज बना रहेगा। प्राणवान् व्यक्ति काले-कलूटे होने पर भी बड़े मोहक लगते हैं। बाहरी बनावट से थोड़ी देर के लिए भले ही प्रसन्न हो सकें अन्ततः कोई लाभ न निकलेगा। उद्विग्नतायें ही परेशान करती रहेंगी। फारसी कहावत है—”हाजते मश्शाता नेस्त रुम दिलाराम रा।” अर्थात् सौंदर्य को सजावट की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही सौंदर्य को प्राप्त करने का प्रयास करें तो हम सच्चे सौंदर्य पारखी माने जायेंगे।
स्वस्थ स्वभाव से सौंदर्य मिलता है। मानसिक कमजोरियाँ ही कुरूपता का कारण है। भली आदतों का संबंध मनुष्य की मानसिक शुद्धता से है, मानसिक चेष्टायें सत्कर्मों में आनन्द लेती रहती हैं तो शरीर और मन की शक्तियाँ प्रखर बनी रहती हैं। इससे अपनी सुन्दरता भी अक्षुण्ण रहती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि शक्तियों का संचय ही सौंदर्यवान होने क