वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे - nibandh likhe lagbhag 300 shabd mai
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जबकि प्रौद्योगिकी और लोकतंत्र ने हमें उस दुनिया को आगे बढ़ाने की शक्ति प्रदान की है जिसमें हम रहते हैं, यह भी हमें भ्रष्ट कर दिया है। इसने हमें संपूर्ण शक्ति और ज्ञान का ज्ञान दिया है जो एक व्यक्ति को भगवान की तरह महसूस करता है। नहीं, हम देव नहीं हैं और हम दूसरों के भाग्य पर फैसला नहीं कर सकते। उनके पास केवल सही है लेकिन हम कर सकते हैं और हमें जानकार निर्णय लेने से, जीवन में सही विकल्प बनाने और दूसरों को हमारे लिए तय करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जो कभी भी शांति में नहीं था जैसा आज है। लेकिन फिर भी राष्ट्रों ने खुद को बरामद किया और अनिवार्य "अगले युद्ध" के लिए तैयारी कर लिया, व्यक्तियों को मीडिया के माध्यम से हर दिन बमबारी की जाती है, छवियों और बंदूकें बंद हो जाती हैं।
हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसने टेलीफोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया का आविष्कार किया है ताकि लोग आसानी से संवाद कर सकें। लेकिन हम कभी भी ऐसा अकेले और कभी-कभी महसूस नहीं करते जितना आज हम करते हैं। हमारे कंप्यूटर, टैबलेट, स्मार्ट-फ़ोन के स्क्रीन के पीछे छिपे हुए, हम दुनिया से किस चीज की पेशकश कर रहे हैं उससे अलग महसूस करते हैं। हमने प्रकृति को लंबे समय से देखना बंद कर दिया है और हमने इसके बारे में सोचने के बिना इसे नष्ट करना शुरू कर दिया है।
हम ऐसे विश्व में रहते हैं जो महान नेताओं को जन्म देता है। लेकिन हम खुद को राजनीतिज्ञों के एक छोटे से समूह द्वारा शासित करते हैं जो कई लोगों का वोट लेते हैं और इसे महत्वहीन बनाते हैं। उनके पास हमारे जीवन को बदलने की शक्ति है, लेकिन वे नहीं हैं और हम उन्हें समर्थन देने के लिए जारी रखते हैं कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।
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Explanation:
राष्ट्र और मानवतावादी कवि स्वर्गीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्ति है यह सूक्ति, जो इस प्रकार है :‘वही मनुष्य है कि जो मनुश्य के लिए मरे।’अर्थात मनुष्यता की भलाई के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर देने वाले को ही सच्चा मनुष्य कहा जा सकता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है महाकवि ने अपनी इस सूक्ति में! अपने लिए तो सभी जी या मर लिया करते हैं। पशु-पक्षी अपने लिए जीते हैं। कुत्ता भी द्वार-द्वार घूम अपने रोटी जुटाकर और पेट भर लेता है। अत: यदि मनुष्य भी कुत्ते या अन्य पशु-पक्षियों के समान केवल आत्मजीवी होकर रह जाए, तो फिर पशु-पक्षी और उसमें अंतर ही क्या रह गया? फिर मनुष्य के चेतन, बुद्धिमान भावुक होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। नीतिशास्त्र की एक कहावत है :‘आहार निद्रा भय मैथुनमंच:, सामान्यमेतत पशुभि: नराणाम!धर्मोहि तेषामधिको विशेषां, धर्मेणहीन पशुभि : समान:।।’अर्थात आहार, निद्रा, भय और विलास-वासना आदि सारी बातें मनुष्य और पशुओं में समान ही हुआ करती हैं। धर्म ही वह मूल विशेषता है, जो मनुष्य और पशु में भेद करती है, धम्र के अभाव में मनुष्य पशु ही है, बल्कि उससे भी गया-बीता है। जिसे मनुष्य के लिए ‘धर्म’ कहा गया है, वह वास्तव में यही है कि मनुष्य केवल अपने लिए जीने वाला, मात्र अपने ही सुख-स्वार्थों का ध्यान रखने वाला प्राणी नहीं है। वह एक सामाजिक प्राणी है। अत: उसका प्रत्येक कार्य-व्यापार, प्रत्येक कदम महज अपना ही नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज और जीवन के हित-साधन करने वाला होना चाहिए। ऐसा करना प्रत्येक मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। यही मनुष्य और उसकी मनुश्यता की वास्तविक पहचान भी है। कवि द्वारा इसी सबकी ओर इस सूक्ति में संकेत किया गया है।आधुनिक संदर्भों में बड़े खेद के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि आज का मनुष्य निहित स्वार्थी और आत्मजीवी होता जा रहा है। इसी का यह परिणाम है कि आज चारों ओर आपधापी, खींचातानी, अनयाय, अत्याचार ओर अविश्वास का वातारवरण बनता जा रहा है। कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं पाता। इसे पशुता का लक्षण ही कहा जाएगा। आज सारे जीवन और समाज में पशु-वृत्तियों का जोर है। परंतु न तो हमेश ऐसा था, न रहेगा ही। भौतिकता की चमक-दमक के कारण आज मानवीय वृत्तियां मरी तो नहीं पर दब अवश्य गई है। अपनी ही रक्षा के लिए हमें उन्हें फिर से जगाना है, ताकि मानवता फिर से जागृत होकर अपने और कवि द्वारा बताए गए इस आदर्श का निर्वाह फिर से कर सके कि :‘वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।’इस भावना की जागृति में ही हमारा और सारी मानव-जाति का मंगल एंव कल्याण है। जितनी तत्परता से इस भावना को जागृत कर लिया जाए, उतना ही शुभ एंव सुखद है। व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकर है।