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रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।।
भावार्थ :- कवयित्री ने इन पंक्तियों में अपने इंतज़ार और प्रयास का वर्णन किया है कि कब उनका मिलन परमात्मा से हो पाएगा। जिस तरह कच्चे घड़े से पानी टपक-टपक कर कम होता जाता है, उसी तरह कवयित्री का जीवन भी कम होता जा रहा है। इसी वजह से वे व्याकुल होती जा रही हैं कि कब ईश्वर उनकी पुकार सुनेंगे और इस संसार-रूपी सागर से उनका बेड़ा पार लगाएंगे। इन पंक्तियों में कवयित्री ने परमात्मा के निकट जाने वाले प्रयासों को कच्चे धागे से खींची जाने वाली नाव के रूप में बताया है। उन्होंने कच्चे धागे शब्द का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि मनुष्य कुछ समय के लिए ही इस धरती पर रहता है, उसके बाद उसे अपना शरीर त्यागना पड़ता है।
धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा है, पर कवयित्री द्वारा प्रभु-मिलन के लिए किये गए सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं। अब उन्हें ऐसा लग रहा है कि समय खत्म होने वाला है, अर्थात मृत्यु समीप है और अब शायद वो प्रभु से मिल नहीं पाएंगी, इसलिए उनका हृदय तड़प रहा है। वो प्रभु से मिलकर उनके घर जाना चाहती हैं। अर्थात उनकी भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं।
खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
भावार्थ :- अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि अगर हम सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहेंगे, तो कभी भी हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। इसके विपरीत अगर हम सांसारिक मोह-माया को छोड़कर त्याग और तपस्या में लग जाएंगे, तो इससे भी हमें कुछ लाभ नहीं होगा। भोग का पूरी तरह से त्याग करने पर हममें अहंकार आ जाएगा, जिसकी वजह से हमें मुक्ति अर्थात ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। इसी वजह से कवयित्री के अनुसार, दोनों रास्ते ही गलत हैं।
जब हम सांसारिक भोग-लिप्सा में तृप्त रहते हैं, तब तो हम सच्चे ज्ञान से दूर रहते ही हैं, इसके विपरीत जब हम त्याग और तपस्या में लीन हो जाते हैं, तब हमारे अंदर अहंकार रूपी अज्ञान आ जाता है, जिसके द्वारा हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते। इसीलिए कवयित्री हमें बीच का मार्ग अपनाने के लिए कह रही है। जिससे हमारे अंदर वासना और भोग-लिप्सा भी नहीं होगी और न ही अहंकार हमारे अंदर पनप पाएगा। तभी हमारे अंदर समानता की भावना रह पाएगी। इसके बाद ही हम प्रभु की भक्ति में सच्चे मन से लीन हो सकते हैं।....
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