Hindi, asked by rahulray8386, 5 months ago

वन भ्रमण का कार्य करम कितने दिनों का था class 10 hindi​

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Answered by dryogeshkodhawade123
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश (भैयाजी) जोशी ने विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा की हिन्दू समाज में जन्म के संदर्भ में श्रेष्ठता की बात सही नहीं है। हिंदुओं को सशक्त, सुसंस्कृत और जागृत होना चाहिए। जोशी ने कहा कि ऐसे सक्रिय हिंदू होने चाहिएं जो बेदाग संगठित शक्ति निर्माण के लिए विश्व का नेतृत्व कर सकें। उन्होंने कहा कि व्यक्ति कर्म के आधार पर श्रेष्ठ होता है। जोशी ने कहा कि हमारे मूल्यों का कहीं न कहीं क्षरण हुआ है और मातृभूमि के प्रति उदासीनता आई है, जो केवल दृष्टिकोण में बदलाव के चलते हुई है। हमें समाज में ऊंच-नीच की भावना समाप्त कर एक समरसतापूर्ण समाज का निर्माण करना होगा। हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी आज जाति व्यवस्था ही है जबकि हमारे पूवजों ने वर्ण व्यवस्था को अपनाया था जिसका सीधा सम्बंध कर्म से ही था। कर्म के कारण ही व्यक्ति की पहचान बनती है व किसी जाति विशेष या परिवार में जन्म लेने से कोई ऊंचा या विद्वान नहीं होता इस कमजोरी को लेकर डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी अपनी पुस्तक 'हिन्दू एवं राष्ट्रीय पुनरुत्थान' में लिखते हैं-मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जब हम 'ब्राह्मण' व 'क्षत्रिय' शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इसका तात्पर्य उन लोगों से है, जो क्रमश: इनके कर्म (ज्ञान, शिक्षा ब्रह्मण तथा सुरक्षा क्षत्रिय) से संबद्ध है, न कि उससे जो जन्म पर आधारित हो, जैसा आजकल लगाया जाता है। अंग्रेजी भाषा ने इन शब्दों के प्रयोग पर टिप्पणियों में तो 'वर्ण' व 'जाति' में भी भेद नहीं किया जाता, यह भी अज्ञान के कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 4, श्लोक13) में श्रीकृष्ण कहते हैं-'चितुर्वण्यम माया श्रष्टम गुण-कर्म विभागध:' इसका तात्पर्य है-'चार वर्ण मैने ही बनाए हैं, जो गुण व कर्म के आधार पर हैं।' कालांतर में यही विकृत होकर जन्म-आधारित बन गया, जिसे हम धर्म की गंभीर विकृति व भ्रष्ट रूप मानते हैं। गीता में कृष्ण की कर्म आधारित परिभाषा के अनुसार डॉ. अंबेडकर तो ब्राह्मण थे, भले ही वह जन्म से न हों। गुण-कर्म से उन्होंने बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया तथा धन-लोभ से वह दूर रहे। इसके बावजूद हम उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल मानते हैं। उनको तो 'महर्षि अंबेडकर' कहा जाना चाहिए। हमें डॉ.एम.वी. नाडकर्णी का ऋणी होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने एक गहन अध्ययन 'इज कास्ट इनसिट्रिंक टू हिंदुइज्म? (क्या जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अन्तर्निहत है?) (इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 8 नवंबर,2003) में यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया है कि 'हमें इस मिथक को सदैव के लिए नष्ट कर देना चाहिए कि 'जाति व्यवस्था हिंदुत्व में अंतर्निहित है'। डॉ. नाडकर्णी विश्वासपूर्वक कहते हैं, 'जाति व्यवस्था अब चरमरा रही है, क्योंकि इसके कारक स्वयं महत्त्व खो चुके हैं। जाति व्यवस्था की प्रासंगिकता, भुमिका, उपयोग व औचित्य सभी समाप्त हो रहे हैं।' जाति व्यवस्था का उद्देश्य ब्राह्मण की श्रेष्ठता स्थापित कतई नहीं था। यह जन्म आधारित भी नहीं थी। ब्राह्मण श्रद्धा व सम्मान के पात्र इसलिए हुए, क्योंकि वह शिक्षा व धर्म के प्रति समर्पित तथा सादा जीवन व्यतीत करते थे। किंतु ऋषि बनने के लिए ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना अनिवार्य नहीं था। वाल्मीकि, वेदव्यास, विश्वामित्र एवं कालिदास में से कोई भी ब्राह्मण परिवार में जन्मा नहीं था। ब्राह्मण कानून के ऊपर भी नहीं थे। रावण, जो एक महान बुद्धिमान था, को भी सीता के हरण की कीमत चुकानी पड़ी, जाति का वर्गीकरण मात्र गुण-कर्म पर ही आधारित था, जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता (अध्याय 4, श्लोक 13) के अतिरिक्त 'उत्तरगीता' में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा था। हाल के वर्षों में डी.एन.ए. पर हुए शोध से भी जाति आधारित नस्लीय अंतर सिद्ध नहीं हो पाया है। ऐसे में हम इस व्यवस्था को कैसे स्वीकार करें, जो अपना महत्त्व खो रही है तथा संपूर्ण हिंदू-एकता में बाधा बनी हुई है? मैं भारत के सभी धर्मगुरुओं एवं धर्माचार्यों से आग्रह करता हूं कि जाति व्यवस्था की समाप्ति हेतु एक मार्ग प्रशस्त करें, ताकि हिंदुत्व का पुनरुत्थान संभव हो सके। यदि वर्ण-व्यवस्था को मानना मजबूरी हो तो इसे पूर्ण रूप से गुण-कर्म पर ही आधारित माना जाना चाहिए। हिन्दुत्व प्रेमियों को चाहिये कि हमारे पूर्वजों का उपरोक्त संदेश की मनुष्य जन्म से नहीं अपने कर्म से बड़ा या छोटा होता है। इस सत्य को घर-घर तक पहुचायें आज के समय में यहीं संदेश हिन्दू समुदाय को एकजुट कर सकता है। संघ के जोशी भैया जी भी यही संदेश दे रहे हैं।

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