Social Sciences, asked by afaqh8715, 7 months ago

वर्ष 1930 में किसने दलित वर्ग संस्था में दलितों को संगठित किया

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Answered by tiwarishashwat125
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दलित अंग्रेज़ी शब्द डिप्रेस्ड क्लास का हिन्दी अनुवाद है। भारत में वर्तमान समय में 'दलित' शब्द का अनेक अर्थों में उपयोग होता है। वैसे तो इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकती, किन्तु मोटे तौर पर उन वर्गों को दलित कहा जाता है जो वर्तमान में अनुसूचित जाति के अन्तर्गत आते हैं। दलित शब्द का अर्थ पीड़ित, शोषित, 'दबाया हुआ' एंव 'जिनका हक छीना गया हो' होता है। इस अर्थ में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सभी धर्मों में दलित वर्ग मौजूद है। वर्तमान समय में जिनको दलित समझा जाता है उनमें से अनेक वर्गों को पहले 'अछूत' या 'अस्पृश्य' माना जाता था। उनका अनेक प्रकार से शोषण हुआ। भारत की जनगणना २०११ के अनुसार भारत की जनसंख्‍या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है

लित शब्‍द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्‍यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्‍पीडन हुआ है। रामचन्द्र वर्मा ने अपने शब्‍दकोश में दलित का अर्थ लिखा है, मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्‍ट किया हुआ।[7] पिछले छह-सात दशकों में 'दलित' पद का अर्थ काफी बदल गया है। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर के आंदोलन के बाद यह शब्‍द हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर स्थित सैकड़ो वर्षों से अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अब दलित पद अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली जातियों की आंदोलनधर्मिता का परिचायक बन गया है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से जाना जाता है।[8] भारतीय समाज में वाल्‍मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और उसका पारंपरिक पेशा मानव मल की सफाई करना रहा है। परन्तु आज के समय में इस स्थिति में बहुत बदलाव आया है। दलित का अर्थ शंकराचार्य ने मधुराष्टकम् में द्वैत से लिया है।उन्होंने "दलितं मधुरं" कहकर श्रीकृष्ण को संम्बोधित किया है।

हालांकि साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है।[10] दलित साहित्य से तात्‍पर्य दलित जीवन और उसकी समस्‍याओं पर लेखन को केन्‍द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है । दलितों को हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्‍हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्‍पृश्‍य माना गया। दलित साहित्यकारों में से अनेकों ने दलित पीड़ा को कविता की शैली में प्रस्तुत किया। कुछ विद्वान 1914 में ’सरस्वती’ पत्रिका में हीरा डोम द्वारा लिखित ’अछूत की शिकायत’ को पहली दलित कविता मानते हैं। कुछ अन्य विद्वान स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ को पहला दलित कवि कहते हैं, उनकी कविताएँ 1910 से 1927 तक लिखी गई। उसी श्रेणी मे 40 के दशक में बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता-बद्ध ही नहीं किया, अपितु अपनी भजन मंडली के साथ दलितों को जाग्रत भी किया । दलितों की दुर्दशा पर बिहारी लाल हरित ने लिखा :

एक रुपये में जमींदार के, सोलह आदमी भरती ।

रोजाना भूखे मरते, मुझे कहे बिना ना सरती ॥

दादा का कर्जा पोते से, नहीं उतरने पाया ।

तीन रुपये में जमींदार के, सत्तर साल कमाया ॥

रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास ताकि बचा रहे लोकतन्त्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की वृहद चर्चा की है[11] वहीं डॉ॰एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक "दलित साहित्य के प्रतिमान " में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।[12]"ठाकुर का कुँआ"प्रेमचन्द्र की एक प्रसिद्ध कहानी है,जिसका कथानक अस्पृश्यता पर केंद्रित है।कहानी की मुख्य पात्र गंगी अपने बीमार पति के लिए कुएँ का साफ पानी नहीं ला पाती है, क्योंकि उच्च जाति के लोग दलितों को अपने कुएँ से पानी नहीं लाने देतें हैं

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