वर्षा के पानी के संरक्षण की जानकारी दें।
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पानी की एक एक-एक बूँद कितनी बेशकीमती है: यह उपर्युक्त पंक्तियों में स्पष्ट उल्लेख किया गया है। छत पर पड़ने वाली बरसात की बूँद का महत्त्व यहाँ स्पष्ट बतलाया गया है। नगर निगम, नगर विकास न्यास, ग्राम पंचायत, जिला परिषद, पानी की एक-एक बूँद-बूँद बचाने पर ध्यान दे, आजकल ऐसी आवश्यकता बन गई है। किस प्रकार जन भागीदारी बढ़ायें कि हर व्यक्ति जिसके सिर पर छत है वर्षा के पानी की बूँदें एकत्रित करें।
आज जल का संकट बढ़ता जा रहा है, गाँवों की छोड़िये, बड़े शहर और राज्यों की राजधानियाँ तक इससे जूझ रही हैं। अब यह संकट केवल गर्मी के दिनों तक ही सीमित नहीं रहा है। पानी की कमी अब ठंड में भी सिर उठा लेती है।
पुराने समय में जो जल एकत्र करने की पारंपरिक विधियाँ थीं, वर्षा के पानी को बड़े तालाबों में एकत्र करने की संपन्न परंपरा अंग्रेजी राज के दिनों में खूब उपेक्षित हुई और फिर आजादी के बाद भी इसकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया गया। कहा जाता है कि देश की 3 प्रतिशत भूमि पर बने तालाब, होने वाली कुल वर्षा का 25 प्रतिशत जमा कर सकते हैं। अब नए तालाब बनाना तो दूर पुराने तालाब भी उपेक्षा के कारण कचरा, मिट्टी से भरते जा रहे हैं। एक से एक प्रसिद्ध तालाब, झील और सागर सूखकर लघुता में सिमटते जा रहे हैं।
जल के ना प्रबंध और कुप्रबंध ने हमारे आदि स्रोतों को खतरे में डाल दिया है। भारत में पानी के मामले में अधिकतम वर्षा चेरापूँजी, न्यूनतम पश्चिमी छोर पर जैसलमेर में होती है। तुलनात्मक दृष्टि से यह वर्षा का पानी अन्य देशों से काफी अधिक होते हुए भी हमारा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हम प्रकृति के इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पाये, न ही कर पा रहे हैं। वर्षा के पानी से खेतों में प्रत्यक्ष सिंचाई के अतिरिक्त एक चौथाई से भी कम पानी का उपयोग हम नहीं कर पा रहे हैं।
खेतों में जगह-जगह छोटे-छोटे जल कूपों का निर्माण कार्य अवश्य किया जा रहा है। परंतु तालाब, झील इत्यादि जलाशयों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है।देश में कुँओं का जलस्तर घटता ही चला जा रहा है अर्थात कुएँ और गहरे होते जा रहे हैं। नलकूपों के बढ़ते चलन से भूमिगत जल भी निजी मालिकी का साधन बन चुका है। वहीं जल दोहन भी शोषण की सीमा तक पहुँच चुका है। नदियों एवं तालाबों की पवित्रता की स्थिति यह है कि शहर की नदियाँ औद्योगिक कच्चे को ठिकाने लगाने का साधन बन चुकी हैं, वहीं तालाब भी इससे अछूते नहीं हैं।
पानी के संरक्षण और उसके उपयोग पर राजस्थान के पाली जिले के बाली उपखंड के लोगों ने अपने दिमागी कौशल-कला से, बिना वाटर पंप के अरावली की पहाड़ियों का सींच कर वर्ष में दो बार फसल लेते हैं। अब तो पाली जिला प्रशासन भी आगे आकर इस सिंचाई पद्धति को पक्का करने के लिये वित्तीय राशि उपलब्ध कराने के लिये अग्रसर हो रहा है। यहाँ की बोलचाल की भाषा में इसे साख पद्धति से सिंचाई करना कहा जाता है। यह पद्धति देखने में भले ही सामान्य लगे, परंतु अद्वितीय है। पर्वतों पर पानी चढ़ाने जैसे चुनौतीपूर्ण कार्य को पूर्ण कर चौंकाने वाला कार्य किया है। यहाँ के मेहनतकश लोगों ने खून-पसीना एक करके वितरिकाओं का निर्माण कर पानी को पहाड़ी तक पहुँचा दिया है। यहाँ के पहाड़ लहलहा उठे हैं। दूसरी तरफ दो मौसमी फसलें उगाते हैं। यहाँ पर बारिश के दिनों में पहाड़ी इलाके में बहकर आने वाले पानी को अलग-अलग जमा कर लेते हैं, बाद में यही वर्षा का पानी पहाड़ी क्षेत्रों में ऊँचाई पर पहुँचाने के लिये, चट्टानी पत्थरों को नाली का रूप देते हैं। इसी के साथ ही पेड़ के तने को भी खोखला कर पानी के पाइप लाइन के रूप में उपयोग करते हैं। दुर्गम स्थानों पर इन तनों को इस तरह से खोखला कर लगाया जाता है कि निर्विघ्न रूप से जलधारा बहती रहे। निःसंदेह कठोर परिश्रम तथा कुशल दिमाग से ही यह संभव हो पाता है। यह अद्भुत कौशल जल संरक्षण एवं प्रभावी उपयोग का उदाहरण है।
इस तरह जब दुर्गम स्थल पर वर्षा के जल को पहाड़ पर एकत्रित कर सिंचाई और पीने के पानी के रूप में काम में लिया जा सकता है तो जमीन पर तो यह कार्य कठिन है ही नहीं। फिर क्यों न तालाबों के पानी को भी इसी तरह जलस्रोतों के रूप में विकसित कर लें।
हमारे यहाँ वर्षा या झरने के पानी को रोकने के लिये बनाये जाने वाले तालाबों का चलन बहुत पुराना है। देश में ऐसे हजारों पुराने तालाब आज भी मौजूद हैं। जो तत्कालीन राजाओं ने बनवाये थे। तालाबों से सिंचाई भी की जाती थी। तालाबों से सिंचाई और खेती की परंपरागत पद्धति को देखकर अंग्रेज भी चकित रह गये थे। परंतु आधुनिकता की दौड़ में ये सब परंपरागत स्रोत हम आज भुलाते जा रहे हैं। इनकी उपेक्षा कर रहे हैं।
आज आवश्यकता है पुराने तालाबों की देखभाल कर उनमें वर्षा के जल भरने की, वहीं जल के संरक्षण की तथा इन तालाबों के उचित रख-रखाव की, वर्षा के पानी के संरक्षण की। ये छोटे-छोटे प्रयास ही जल संरक्षण व हमारे पर्यावरण संरक्षण में मददगार हो सकेंगे। हमारा यह प्रयास ‘श्री भगीरथ’ प्रयास बन जायेगा। शुभ कार्यों को कल के लिये नहीं टाला जाना चाहिए क्योंकि कल कभी नहीं आता। दृढ़ संकल्प के साथ प्रारंभ किए गए कार्य पूर्ण अवश्य होते हैं।
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