Hindi, asked by surajkumarsing7814, 1 year ago

वर्षा के समय प्रकृति का सौंदर्य अनुपम दिखाई देता है। कैसे?

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Answered by gajendrabishnoi5529
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Answer:

प्रकृति के साथ जियें, अनुपम उल्लास एवं दिव्य शिक्षण का लाभ उठायें

हमारी पुण्य परम्परा

भारत के ऋषि- मनीषियों ने प्रकृति को चेतन सत्ता मानकर उसके साथ तालमेल बिठाते हुए जीवनयापन करने के सिद्धान्त को बल दिया है। प्रकृति के साथ सद्भावपूर्ण सद्व्यवहार की पुण्य परम्परा के नाते प्रकृति हमारे लिए माँ की तरह पोषण की व्यवस्था तो बनाती ही रही, जीवन सूत्रों की दिव्य प्रेरणा भी प्रदान करती रही। इसी कारण भारत देश ज्ञान- विज्ञान की दृष्टि से विश्वगुरु और संसाधनों की दृष्टि से सोने की चिड़िया कहा जाता था। प्रकृति की विभिन्न ऋतुएँ विभिन्न सूक्ष्म प्रवाहों और स्थूल संसाधनों को लेकर आती हैं। उन्हें समझकर उनके अनुकूल व्यवस्थाएँ बनाकर हम प्रकृति के अनुदानों का श्रेष्ठ उपयोग करके श्री, समृद्धि एवं संतोष के अधिकारी बन सके।

वर्षाऋतु - स्थूल क्रम में जल वृष्टि तथा सूक्ष्म में पर्जन्य- उर्वरता का प्रवाह लेकर आती है। समझदार मनुष्य प्रकृति के प्रवाह के अनुरूप अपनी व्यवस्थाएँ बनाकर उसका समुचित लाभ उठा लेते हैं। जो उसके अनुकूल व्यवस्था नहीं बना पाते, उन्हें लाभ तो कम मिलते ही हैं, कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है।

स्थूल क्रम में पानी बरसता है। यदि छतों की स्थिति ठीक नहीं हो तो पानी टपकने से या सीलन बैठने से परेशानियाँ होंगी ही। यदि सड़कों- नालियों की सफाई ठीक से न हुई तो कीचड़ और जल भराव की समस्याओं को झेलना ही पड़ेगा। इसके विपरीत जिनकी तैयारी ठीक होगी, उन्हें उक्त कठिनाइयों से मुक्ति और वर्षा का आनन्द मिलना ही है। इसके अलावा कुओं, तालाबों, पोखरों में पानी इकट्ठा होकर लम्बे समय तक आपूर्ति कर सकेगा।

सूक्ष्म क्रम में उर्वरता बढ़ती है। खेत तैयार कर लिए जायें और समय पर बीज बोये जायें तो फसल का लाभ मिलेगा ही। लेकिन उर्वरता बीजों के साथ खर पतवारों को भी तो बढ़ा देती है। यदि निराई की व्यवस्था न की जाय, खर- पतवार को उखाड़ा न जाय तो फसल को हानि तो पहुँचेगी ही।

प्रकृति की उर्वरता जहाँ पेड़- पौधों को तेजी से बढ़ाती है, वहाँ वह मच्छर- मक्खी, छोटे कीटों को भी बढ़ाती है। जरा- सी गन्दगी हुई कि उनके विकास की गति तेज हुई। यही नहीं, आँख से न दिखने वाले विषाणु- रोगाणु भी वर्षाकाल की उर्वरता का लाभ लेकर तेजी से बढ़ते हैं। जरा सी चूक हुई कि शरीर में रोगों का प्रकोप बढ़ने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उर्वरता के वाञ्छनीय प्रभावों को संरक्षित- विकसित करते हुए उसके अवाञ्छनीय प्रभावों को निरस्त करने की व्यवस्था भी बनानी पड़ती है। जीवन के सभी आयामों में प्रकृति के प्रवाहों के वाञ्छित प्रवाहों को बढ़ाने और अवाञ्छित प्रवाहों को निरस्त करने की साधना आवश्यक हो जाती है।

वर्षाऋतु की साधना

जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, वर्षाऋतु के स्थूल और सूक्ष्म दोनों तरह के प्रवाहों के सदुपयोग- सुनियोजन की तत्परता बरतना जरूरी होता है। स्थूल तंत्र के बारे में तो अधिकांश लोग सावधानी बरत लेते हैं, किन्तु सूक्ष्म तंत्र पर कम ही लोगों का ध्यान जाता है। हमारे ऋषियों- मनीषियों द्वारा दोनों ही क्षेत्रों के लिए विवेकपूर्ण रीतिनीतियों के प्रतिपादन और प्रयोगों का तानाबाना बुना जाता रहा है। उसे समझा और विवेकपूर्वक व्यवहार में लाया जाय तो वर्षाकाल के कुप्रभावों से बचकर सुप्रभावों का पर्याप्त लाभ उठाया जा सकता है।

संत परम्परा : संत श्रेणी के साधक लोकशिक्षण तथा लोकमंगल के कार्यों को गति देने के लिए विचरण करते रहते थे। प्यासा व्यक्ति अपनी प्यास बुझाने के लिए कुओं तक जाये, यह ठीक है, किन्तु संत तो मेघों की तरह प्यासी धरती तक स्वयं पहुँचकर उसकी प्यास बुझाने की साधना अपनाते रहे हैं। इसीलिए रामचरित मानस में लिखा है-

'संत सुखी विचरन्त मही' अर्थात- संत प्रकृति के लोग विचरण करते हुए लोकमंगल की साधना करने में ही सुख का अनुभव करते हैं।

संत लोगों की परम्परा पदयात्रा की रही है। प्राचीन काल में वर्षाऋतु में उसमें कठिनाई आती थी। इसलिए उन दिनों यात्रा क्रम रोककर वे कहीं कल्पवास करते थे। एक स्थान पर रहकर विशेष तप साधना द्वारा शरीर के शोधन के प्रयोग और स्वाध्याय- सत्संग द्वारा मन के शोधन के प्रयोग किये जाते थे। खानपान के संयम से, शरीर शोधन की यौगिक क्रियाओं से शरीर में पनपने वाले रोगाणुओं- विषाणुओं के प्रभाव को निरस्त कर दिया जाता था। उनके मार्गदर्शन में सामान्य जन भी इस प्रकार की साधनाओं में लगकर लाभान्वित होते रहते थे।

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