वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति सजग हो जाना क्यों महत्वपूर्ण है? आप
व्यक्तिगत स्तर पर इसकी सहायता कैसे कर सकते हैं?
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सामाजिक मुद्दे एवं पर्यावरण: अपोषणीय से पोषणीय या संघृत विकास की ओर
पृथ्वी तथा इसके निवासियों का भविष्य हमारी क्षमताओं से संबंद्ध पर्यावरणीय अनुरक्षण (Maintainance) तथा परिरक्षण (Prservation) पर निर्भर करता है। इसी संदर्भ में पर्यावरण के दीर्घावधिक उपयोग एवं अभिवृद्धि के लिये संघृत विकास की संकल्पना का विकास हुआ है। 1990 के दशक में यह माना जाने लगा कि पर्यावरणीय संसाधनों के अतिदोहन या अविवेकपूर्ण तरीकों से उपयोग करने पर पर्यावरणीय ह्रास तथा अस्थिरता उत्पन्न हो रही है। यह सर्वाधिक विकासशील देशों में देखा गया है।
पोषणीयता या संघृतता (Sustainability) सभी प्राकृतिक पर्यावरणीय तंत्रों का एक अन्तर्निमित लक्षण है, जो मानवीय हस्तक्षेप को न्यूनतम स्तर पर स्वीकार करता है। यह किसी तंत्र की क्षमता तथा उसके सतत प्रवाह को अनुरक्षित (Maintain) रखने के लिये संबंद्ध करता है, जिसके फलस्वरूप वह तंत्र अपना स्वस्थ अस्तित्व रख पाता है। पर्यावरणीय संसाधनों के मानवीय उपयोग तथा पर्यावरणीय तंत्रों में हस्तक्षेप के कारण यह अन्तः निर्मित क्षमता विकृत हो जाती है, जो इसे असंघृत (Unsustainable) बना देती है।
इसके विपरीत अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि संसाधनों के दोहन तथा अवनयन से शोध एवं विकास को बढ़ावा मिलता है तथा संसाधनों के नए विकल्पों के बारे में खोज की ओर अग्रसर होते हैं, लेकिन हर सम्भावना की भी एक सीमा होती है। संरक्षणवादी एवं पारिस्थितिकीविद एक लम्बे समय से प्राकृतिक पर्यावरणीय तंत्रों में विद्यमान पोषणीयता से अवगत थे, लेकिन संघृत विकास की संकल्पना का विकास दो दशक पूर्व ही हुआ। संघृत विकास (sustainable Development) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग विश्व संरक्षण रणनीति में 1980 में किया गया, लेकिन यह विस्तार से 1987 में पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग द्वारा प्रचारित किया गया।
“भावी पीढ़ी की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता में ह्रास किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करना ही संघृत विकास है।”
संघृत विकास की संकल्पना में निम्नांकित दो संकल्पनाएँ निहित हैं-
(i) आवश्यकताओं की संकल्पना पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें विशेष रूप से विश्व के गरीब लोगों की आवश्यकताओं पर बल दिया जाए।
(ii) वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली पर्यावरणीय क्षमता पर प्रौद्योगिकी और सामाजिक संगठन द्वारा निर्धारित सीमाओं पर विचार किया जाए। लम्बे समय से यह मान्यता रही है कि पृथ्वी तथा इसके निवासियों का भविष्य प्रकृति के अनुरक्षण एवं संचयन की हमारी क्षमताओं पर आधारित रहा है। प्रकृति प्रदत्त जीवन निर्वाहन व्यवस्था को बचाने में हमारी क्षमताओं में कमी आते ही पर्यावरण असंतुलित हो जाता है। इसी संदर्भ में संघृत विकास से संबंधित निम्न प्रसंग महत्त्वपूर्ण हैं-
(i) सभी नव्यकरणीय संसाधनों का पूर्ण उपयोग संघृत है।
(ii) पृथ्वी पर जीवन की विविधता संरक्षित है।
(iii) प्राकृतिक पर्यावरणीय तंत्रों का ह्रास कम हो गया है।
10.2 संघृत विकास के सिद्धांत
संघृत विकास की मान्यता है कि उपयुक्त प्रविधि एवं सामाजिक व्यवस्था द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र से पर्याप्त मात्रा में संसाधनों की प्राप्ति हो सकती है, जो मानव समाज की वर्तमान एवं भावी जरूरतों की पूर्ति कर सकते हैं, स्पष्ट यह ऐसा विकास नहीं जो पर्यावरण में विद्यमान संसाधनों के उपयोग पर नियंत्रण रखे जैसा कि पर्यावरण संरक्षण की मान्यता है। लेकिन यह पर्यावरण संरक्षण से हटकर संसाधनों के दोहन पर अंकुश नहीं लगाकर उनकी अभिवृद्धि पर बल देता है जिसके परिणामस्वरूप मानव एवं पर्यावरण के मध्य एक ऐसी परिवर्तनशील व्यवस्था का उद्भव होता है, जो संसाधनों के विदोहन, प्रौद्योगिकी विकास तथा संस्थागत परिवर्तनों के द्वारा मानव समाज की वर्तमान एवं भाव आवश्यकताओं के मध्य सामंजस्य स्थापित करने को महत्त्व देता है। इस प्रकार संघृत विकास निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है।