वर्तमान शिक्षा और भविष्य' विषय पर 100-120 शब्दों में अनुच्छेद लिखिए।
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You can choose any of the paragraph. That I have written below.
शिक्षा का वास्तविक अर्थ होता है, कुछ सीखकर अपने को पूर्ण बनाना। इसी दृष्टि से शिक्षा को मानव-जीवन की आंख भी कहा जाता है। वह आंख कि जो मनुष्य को जीवन के प्रति सही दृष्टि प्रदान कर उसे इस योज्य बना देती है कि वह भला-बुरा सोचकर समस्त प्रगतिशील कार्य कर सके। उचित मानवीय जीवन जी सके। उसमें सूझ-बूझ का विकास हो, कार्यक्षमतांए बढ़ें और सोई शक्तियां जागगर उसे अपने साथ-साथ राष्ट्री के जीवन को भी प्रगति पथ पर ले जाने में समर्थ हो सकें। पर क्या आज का विद्यार्थी जिस प्रकार की शिक्षा पा रहा है, शिक्षा प्रणाली का जो रूप जारी है, वह यह सब कर पाने में समथ्र है? उत्तर निश्चय ही ‘नहीं’ है। वह इसलिए कि आज की शिक्षा-प्रणाली बनाने का तो कतई नहीं। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतना वर्षों बाद भी, कहने को शिक्षा बहुत अधिक विस्तार हो जाने पर भी, इस देश के व्यक्ति बहुत कम प्रतिशत आमतौर पर साक्षर से अधिक कुछ नहीं हो पाए। वह अपने आपको सुशिक्षित तो क्या सामान्य स्तर का शिक्षित होने का दावा भी नहीं कर सकता। इसका कारण है, आज भी उसी घिसी-पिटी शिक्षा-प्रणाली का जारी रहना कि जो इस देश को कुंठित करने, अपने साम्राज्य चलाने के लिए कुछ मुंशी या क्लर्क पैदा करने के लिए लार्ड मैकाले ने लागू की थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के लगभग पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी उसके न बदल पाने के कारण ही शिक्षा ही वास्तविकता के नाम पर यह देश मात्र साक्षरता के अंधेरे में भटक रहा है। वह भी विदेशी माध्यम से, स्वेदेशीपन के सर्वथा अभाव में।
हमारे विचार में वर्तमान शिक्षा-प्रणाली शिक्षित होने के दंभ ढोने वाले लोगों का उत्पादन करने वाली निर्जीव मशीन मात्र बनकर रह गई है। तभी तो वह उत्पादन के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों दिशाहीन नवयुवकों को उगलकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है। इस शिक्षा-प्रणाली का ही तो दोष है कि बी.ए., एम.ए. करने के बाद भी सक्रियता या जीवन व्यवहारों के नाम पर व्यक्ति अपने को कोरा-बल्कि थका-हारा और पराजित तक अनुभव करने लगता है। यह प्रणाली अपने मूल रूप में कई-कई विषयों की सामान्यत जानकारी देकर शिक्षित होने का बोझ तो हम पर लाद देती है, पर वास्तिवक योज्यता और व्यावहारिकता का कोना तक भी नहीं छूने देती। परिणामस्वरूप व्यक्ति व्यक्तित्व से हीन होकर अपने लिए ही एक अबूझ पहेली और बोझ बनकर रह जाता है। ऐसे व्यक्ति से देश जाति के लिए कुछ कर पाने की आशा करना व्यर्थ है।
यह शिक्षा और इसके साथ जुड़ी परीक्षा-प्रणाली शिक्षार्थी की वास्तविक योज्याताओं का जागरण तो क्या, अनुभव तक नहीं होने देती। वास्तव में यह योज्य-अयोज्य का कोई मानदंड भी तो अभी तक प्रस्तुत नहीं कर पाई। इसके द्वारा अक्सर योज्य तो पिछडक़र भटक जाते हैं और अयोज्य लाभ उठा लेते हैं। कई-कई विषयों का बोझ लदा होने के कारण व्यक्ति पारंगत किसी में भी नहीं हो पाता, विभिन्न विषयों को मात्र गिना ही सकता है। फिर यह शिक्षा-प्रणाली बोझित और महंगी भी इतनी अधिक हो गई। दिन-प्रतिदिन और भी होती जा रही है कि प्रत्येक परिवार और व्यक्ति उसे सहार नहीं सकता। आत्म-बोझ, देश-बोध, राष्ट्र-बोध एंव मानवीयता का बोध तक दे पाने में यह शिक्षा सफल नहीं की जा सकती। इन्हीं सब कारणों से समय-समय पर इसे बदल डालने का स्वर उठता रहता है। विचार करने के के लिए आयोग भी गठित होते रहते हैं, फिर भी पता नहीं कौन-सी विवशता है कि हम लोग उसी घिसे-पिटे, अपने देश की इच्छा-आकांक्षाओं और आवश्यकताओं से सर्वथा विपरीत शिक्षा-प्रणाली के जूए को ही कंधों पर लादे कोल्हू के बैल बने हुए घूमते रहते हैं। इस मानसिकता को किसी भी तरह से स्वस्थ एंव सुखद नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह प्रणाली सुशिक्षा की जड़ें काट रही है।
शिक्षा का अर्थ होता है, योज्य नागरिक उत्पन्न करना, जीवन को जीने योज्य बनाना, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग करना। क्योंकि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अपने दायित्वों के निर्वाह में सफल नहीं हो पा रही, अत: इसे बदलना नितांत जरूरी है। सबसे पहली आवश्यकता शिक्षा को पढऩे वालों की रूचियों के अनुकूल बनाने की है। फिर उसका पाठयक्रम और विषयों का चयन ऐसा होना चाहिए कि जो हमें जीवन-व्यवहारों में निपुण बना सके-न कि केवल साक्षर। जैसे कि आजकल कुछ विषय केवल परीक्षा पास करने के लिए ही पढ़ाए जाते हैं। चाहे वे जीवन-व्यवहार के लिए उपयोगी और छात्र की रुचि-इच्छा के अनुकूल हों या न हों, ऐसे विषयों का पठन-पाठन बंद होना चाहिए। ललित साहित्य जैसे विषय यदि ऐच्छिक बना दिए जांए, केवल सुरुचि-संपन्न ही उन्हें पढ़ें, तो बहुत अच्छा होगा। पढाने का ढंग भी केवल पुस्तकीय न होकर व्यावहारिक होना चाहिए। इसी प्रकार बंद कमरों की बजाय खुले क्षेत्रों में शिक्षा दी जानी चाहिए। तभी शिक्षा अपने वास्तविक लक्ष्यों मे ंसफल हो सकती है। निरर्थक माल उत्पन्न करने वाली मशाीन के समान उसका चालू रहना उचित नहीं है।
अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि यदि वास्तव में हम देश और जाति का भला चाहते हैं, तो यथासंभव शीघ्र इस उधार की शिक्षा प्रणाली को बदलकर इसके स्थान पर देश-काल की जरूरत को अनुरूप किसी नई प्रणाली को जारी करना आवश्यक है, नहीं तो हम धीरे-धीरे अपनी अस्मिता में चुककर कहीं के भी नहीं रह जाएंगे। आज की भटकाव की स्थिति हमारी अस्मिता को जाकर ऐसे गर्त में डुबो देगी, जहां से निकल पाना अत्यंत कठित हो जाएगा। ऐसी स्थिति में तत्काल सजग हो जाना बहुत जरूरी है। शिक्षा को सब प्रकार से स्वदेश की इच्छा-आवश्यकताओं की वाहक और स्वदेशी माध्यम से दिया-बनाया जाना यथासंभव शीघ्र ही आवश्यक है।