वस्त्र उद्योग के विशेष संदर्भ में मध्यकालीन यूरोप में शिल्प उत्पादन की प्रकृति की चर्चा
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परिचय
वस्त्रोद्योग का निरंतर अंतरराष्ट्रीयकरण होने से घरेलू उत्पादन में महिला कामगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से दो प्रकार की योजनाएं बनाती हैं, एक उन क्षेत्रों तथा देशों में उद्योग स्थापित किया जाता है जहाँ श्रमिक कम मजदूरी पर मिल जाते हैं, दूसरा हर देश की श्रम शक्ति के असुरक्षित वर्ग का उपयोग करना जैसे प्रवासी तहत महिलाएं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा भारत में कपड़ा, उद्योग, फैक्ट्रियों के रूप में प्रस्थापित नहीं किया जाता। वास्तव में स्थानीय कपड़ा निर्माता अन्तराष्ट्रीय खरीदारों तथा निर्माता कम्पनियों से सम्पर्क बना कर रखती हैं।
विश्व पुनसंरचना की इस प्रक्रिया में सबसे अधिक और महत्वपूर्ण सम्पर्क घरेलू महिला कामगारों से होता है परम्परागत मान्यताओं एवं रोजगार के अवसरों के अभाव के कारण गृहिणियां एवं लड़कियाँ कपड़ा उत्पादन से जुडती है? महिला कामगारों के माध्यम से ही बीड़ी बनाने, खाद्यान प्रक्रिया और फीते बनाने वाले उद्योग विश्व बाजार स्तर पर उत्पादन कर रहे हैं। इन उद्योगों में कुछ समान्य लक्षण पाए जाते हैं जैसे-निम्न मजदूरी और प्रति दर के हिसाब से पैसे, लम्बे और थकान भरे कार्य करने के घंटें और किसी भी प्रकार के श्रमिक संगठनों का अभाव। इन समस्त कारणों से श्रम शक्ति का जीवन स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। कपड़ा उद्योग का सम्पर्क विदेशी बाजार से होता है। अतः वे अपना काम सब कांट्रेक्टिंग और छोटे कार्यस्थलों पर करवाते हैं।
भारत से कपड़े के कुल वार्षिक निर्यात में दिल्ली का 60 प्रतिशत योगदान होता है। इस उद्योग से लगभग एक लाख कामगार जुड़ें हैं जिनमें से 25 प्रतिशत महिलाएं हैं। इस उद्योग की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है।
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- संगठन के विकेन्द्रीकृत होने के कारण उद्योग द्वारा श्रम कानूनों की अवज्ञा की जाती तथा वैधानिक सुविधाओं का अभाव देखा जाता है।
- यह उद्योग गरीब तथा निम्न मध्य वर्ग की सभी आयु वर्ग की महिलाओं का ध्यान अपनी ओर खींचता है किन्तु यहाँ युवतियों को प्राथमिकता दी जाती है।
कम्पनी के आकार एवं पूर्व प्रदर्शन पर उत्पादन के विभिन्न भाग तथा सब-कांट्रेक्ट निर्भर करते हैं, तथा वही उसकी गुणवत्ता एवं उसकी मजदूरी तय करती है कि उत्पादन के किन
दिल्ली में घरेलू महिला कामगारों की संख्या 25,000 दे 1.00.000 अनुमानित की गई है। जिनकी औसतन आयु 27 वर्ष है किन्तु 13 प्रतिशत महिलाएं 18 वर्ष से कम उम्र की है। जो आठ या नौ वर्षों से इस उद्योग से जुडी हुई है, इनमें से अधिकांश लड़कियों ने या तो स्कूल में प्रवेश ही नहीं लिया या फिर किसी न किसी कारणवश उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ गया। 35 प्रतिशत महिलाएं अनपढ़ थी जबकि अधिकांश ने प्राथमिक स्तर की शिक्षा ग्रहण कर रखी थी। युवा लड़कियाँ न तो आगे पढ़ सकती है न ही घर से बाहर कोई काम कर सकती हैं। 70 प्रतिशत महिलाएं विवाहित और २3 प्रतिशत अविवाहित है। 87 प्रतिशत परिवारों में 16 से कम उम्र के बच्चे थे। प्रत्येक परिवार में कमाने वालों की औसतन संख्या २.54 थी। एक-तिहाई परिवारों में दो या दो से अधिक महिलाएं तथा 16 प्रतिशत में चार से ज्यादा महिलाएं अर्जित कार्य करती थी। परिवार की औसत मासिक आय 577 रूपये है। महिला कामगारों के सहयोग के अभाव में यह घटकर 423 रूपये ही रह जाती है।
महिलाओं द्वारा घरेलू कामगार बनने के कई कारण बताये गए हैं जैसे पति का बेरोजगार होना या अनियमित रोजगार का होना, पति का शराबी होना यह फिर पति द्वारा घर छोड़कर चले जाना। ऐसी स्थिति में अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्हें यह कार्य करना पड़ता है।
कढ़ाई कई प्रकार की होती है। सबसे अधिक थकान वाला तब काम होता है वस्त्रों के बड़े भाग को कढ़ाई से भरना होता है। दूसरे प्रकार की कढ़ाई में वस्त्रों पर क्रोशिये की कढ़ाई की जाती है। दिन में आठ घंटें काम करने पर भी मुश्किल से 20.035 रूपये कमा पाती है।
खाका खींचना
वस्त्रों पर कढ़ाई करने से पूर्व खाका खींचा जाता है। इस कार्य में कामगारों को रंग तथा ट्रेसिंग पेपर अपनी ओर से खरीदने पड़ते हैं। इस काम को करने के लिए उन्हें लम्बे समय तक काम करना पड़ता है तब भी उनके एक महीने की औसत आय 500 रूपये से अधिक नहीं होती ।
बटन टांकना
कपड़ों के निर्धारित स्थानों पर कई प्रकार के बटन तथा हुक लगाये जाते हैं। प्रति बटन 25 पैसे दिये जाते है। कम से कम 20 रूपये प्रति दिन कमाने के लिए महिलाओं को एक दिन में 100 बटन लगाने होंगे।
अन्तराष्ट्रीय प्रतियोगिता के कारण वस्त्र उद्योग को सस्ते श्रम तथा घरेलू उत्पादकों पर निर्भर रहना पड़ता है। घरेलू काम के साथ-साथ पीस कार्य करने पर कई बार महिलाएं दुविधा में पड़ जाती है कि पहले घर की जिम्मेदारी निभाए या आर्थिक कार्यों को पहले पूरा करे। उन्हें तनाव में काम करना पड़ता है। जिससे समय के साथ-साथ उनका काम भी प्रभावित होता है। अंतः में कहा जा सकता है ही अन्तराष्ट्रीय प्रतियोगिता के बढ़ने से महिलाएं एवं लड़कियों का उपयोग अधिक किया जाने लगा है।
गारमेंट उद्योग
यूँ तो गारमेंट उद्योग एक शताब्दी पुराने टैक्सटाइल उद्योग का ही एक हिस्सा है लेकिन यह एक अलग उद्योग के रूप में अपनी पहचान देश विभाजन के बाद ही बना पाया। हर दिन आदमी की पॉकेट और मन में खास जगह बनाने वाले इस उद्योग की सफलता के पीछे सरकार की उदारवादी ओद्योगिक नीतियाँ भी है। 1975 में सरकार ने उन्हीं नीतियों के तहत अनौपचारिक और लघु इकाई वाले गारमेंट सैक्टर को प्रोत्साहित करने का फैसला लिया। इस सरकारी फैसले से गारमेंट उद्योग ने अन्तराष्ट्रीय बाजार में अपनी अलग व महत्वपूर्ण छाप छोड़ी।