Hindi, asked by raghavpaul1234, 2 months ago

'वट-सावित्री' व्रत से संबंधित कहानी संक्षेप में लिखिए।​

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Answered by mebhumikasharma009
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वट सावित्री व्रत-कथा और इसकी महिमा

वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास माना गया है. यह पेड़ लंबे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे 'अक्षयवट' कहते हैं. अखंड सौभाग्य और आरोग्य के लिए वटवृक्ष की पूजा की जाती है.

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aajtak.in

नई दिल्ली,

22 जनवरी 2015,

(अपडेटेड 23 जनवरी 2015, 2:25 PM IST)

वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास माना गया है. यह पेड़ लंबे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे 'अक्षयवट' कहते हैं. अखंड सौभाग्य और आरोग्य के लिए वटवृक्ष की पूजा की जाती है.

इस वृक्ष की बड़ी महिमा है. अक्षयवट के पत्ते पर ही प्रलय के अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने मार्कण्डेय को दर्शन दिए थे. देवी सावित्री भी वटवृक्ष में निवास करती हैं. प्रयाग में गंगा के तट पर स्थि‍त अक्षयवट को तुलसीदासजी ने 'तीर्थराज का छत्र' कहा है.वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति को पुन: जीवित किया था. तब से यह व्रत ‘वट सावित्री’ के नाम से जाना जाता है.

इसमें वटवृक्ष की पूजा की जाती है. महिलाएं अखण्ड सौभाग्य व परिवार की समृद्धि के लिए यह व्रत करती हैं. व्रत की परिक्रमा करते समय 108 बार सूत लपेटा जाता है. महिलाएं सावित्री-सत्यवान की कथा सुनती हैं. सावित्री की कथा को सुनने से मनोरथ पूर्ण होते हैं और विपदा दूर होती है.

वट सावित्री व्रत कथा:

मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा राज्य करते थे. उनके संतान नहीं थी. राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया. कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई. उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा. विवाह योग्य होने पर सावित्री को वर खोजने के लिए कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया. यह बात जब नारद जी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति से बोले कि सत्यवान अल्पायु हैं. एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी. नारद जी की बात सुनकर उन्होंने पुत्री को समझाया,पर सावित्री सत्यवान को ही पति रूप में पाने के लिए अडिग रही.

सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति ने सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया. सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही. नारद जी ने मृत्यु का जो दिन बताया था, उस दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई. वन में सत्यवान ज्योंहि पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी. वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया. थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज खड़े हैं. यमराज सत्यवान के अंगुप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए.

सावित्री को आते देख यमराज ने कहा, ‘हे पतिपरायणे! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया. अब तुम लौट जाओ.’ सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए. यही सनातन सत्य है.’

यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर मांगने को कहा. सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें.’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे चलती रही. यमराज ने उससे पुन: वर मांगने को कहा.

सावित्री ने वर मांगा, ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए.’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही. सावित्री की पति भक्ति व निष्ठा देखकर यमराज पिघल गए. उन्होंने एक और वर मांगने के लिए कहा. तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के पुत्रों की मां बनना चाहती हूं. कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें.’

सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए. सावित्री अब उसी वट वृक्ष के पास आई. वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया. सत्यवान के माता-पिता की आंखें ठीक हो गईं और खोया हुआ राज्य वापस मिल गया.

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