ववद्या य के म ु ख्य द्वार पर बैठे खोमचेवा ों की लशकायर् करर्े हु ए प्रधािाचायात को एक पत्र ल खखए।
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कवितावली लो, अब लो, तब तो किसी ने कहना न माना, जिस जिसको रोकना चाहो वही ऐंठा जाता था। शब्दार्थ-कोकियको ( कौन ) + किये (करै ) अथवा पुकारना । सतराए = ऐंठ जाना । [७०] एक करै धौज, एक कह काढ़ो साँज, एक औजि पानी पी कै कहै 'बनत नावनो'। एक परे गाढ़े, एक डाढ़त ही काढ़े, एक देखत हैं ठाड़े, कहें 'पावक भयावनो' । तुलसी कहत एक "नीके हाथ लाये कपि, अजहूँ न छाँडै बाल गाल को बजावनो" "धाओ रे, बुझाओ रे" कि “बावरे हो रावरे, या और श्रागिलागी, न बुझावै सिन्धु सावनो"॥ अर्थ-एक दौड़ा जा रहा है, एक कहता है कि सब बटोरकर निकाल लो, एक अँजुरी भर पानी पीकर कहता है कि अब तो नहीं पाया जाता। कोई बड़ी भीड़ में पड़ गया है, कोई जलता हुआ निकाला गया। कोई खड़ा देख रहा है और कहता है कि अग्नि बड़ी विकराल है। हे तुलसी ! कोई कह रहा है कि बन्दर ने अच्छे हाथ लगाये परन्तु ( रावण ) लड़को की सी शेखी मारना अब भी नहीं छोड़ता। अथवा मेघनाद अच्छे हाथों बन्दर को लाया था और देखा तो लड़का अब भी शेखी मारना नहीं छोड़ता। दौड़ो रे, बुझाओ रे, क्या आप बावले हो गये हैं यह और ही तरह की प्राग लगी है जो समुद्र और सावन की वर्षा से भी नहीं बुझती। शब्दार्थ-धौंज = दौड़ना। सौज = बटोरकर, अलबाम । डाढ़त = जलता हुआ । [१] कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले, रावन-रजाइ धाइ आये जूथ जोरिक। कह्यो लंकपति “लंक बरत बुतानो बेगि, बानर बहाइ मारी महा बारि बोरिके" ॥ पाठांतर-वारन = हाथी, वार न-देर न ।......