वयापार-जगत के समाचारो की भाषा में बनावटी शब्दों का प्रयोग
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हिंदी के नाम पर व्यापार
सरकारी संरक्षण में एक नयी हिंदी (सरकारी भाषा) पनप रही है. इस भाषा में बड़े पैमाने पर सरकारी कामकाज हो रहे हैं. प्रतिवर्ष इसे समृद्ध बनाने में करोड़ों रुपये व्यय किये जा रहे हैं. स्वतंत्रता के बाद से अब तक तकरीबन 2800 करोड़ रुपये हिंदी को विकसित करने के लिए सरकार खर्च कर चुकी है. इस भाषा की खूबी है कि यह .चीनी. (दुनिया की सबसे कठिन भाषा) से भी कठिन है और इस भाषा का ईजाद करनेवाले खुद इसे नहीं समझते. हिंदी सप्ताह के दौरान दिल्ली के विभिन्न मंत्रालयों में एक व्यक्तिगत सर्वे किया गया. सर्वे के अनुसार हिंदी भाषाभाषी अधिकारियों ने स्वीकार किया कि उन्हें मौजूदा सरकारी हिंदी समझ में नहीं आती. वे बोलचाल की हिंदी में काम करना पसंद करेंगे. लेकिन ऐसी हिंदी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है. संविधान बनाने के पूर्व हिंदी को राजभाषा बनाने की दलील देनेवाले दो खेमों में बंटे थे. एक समूह संस्कृतनिष्ठ हिंदी का पक्षधर था, दूसरा हिंदुस्तानी का. हिंदुस्तानी में उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से आये शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होता था. गांधी जी भी ऐसी भाषा के ही पक्षधर थे. नेहरू भी इसे ही तरजीह देते थे. दूसरे खेमे के लोगों को हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से परहेज था. फिलहाल सरकार की देखरेख में जिस हिंदी का विकास हो रहा है, वह इन दोनों से अलग और एक नयी धारा है. यह धारा लोकोन्मुख नहीं, लोक विपरीत है, जो भाषा अपने आधार से कट जाती है, वह जीवंत नहीं रहती और धीरे-धीरे मर जाती है. संस्कृत के पराभव और संपन्नता पर गौर करें, तो यह स्पष्ट होगा. संस्कृत में वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, रामायण, महाभारत और न जाने कितना महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. लेकिन इस समृद्ध भाषा का अस्तित्व आज खतरे में है. भाषा का क्लिष्ट होना उसकी लोकप्रियता और स्थायित्व की गारंटी नहीं है. अगर ऐसा होता, तो आज विश्व में लैटिन, ग्रीक संस्कृत-चीनी भाषाओं का ही बोलबाला रहता. भाषा की जीवंतता की पहली और महत्वपूर्ण शर्त है कि वह लोक से न कटे. जिस क्षण भाषा बौद्धिकों-विद्धानों की गिरफ्त में आ जाती है, वह मरने लगती है. वस्तुत: करोड़ों की लागत से जो कठिन सरकारी हिंदी विकसित की जा रही है, वह चलनेवाली नहीं हैं. न उसमें सरकारी कामकाज हो सकता है, न वह लोकभाषा बन सकती है. वस्तुत: यह हिंदी के साथ एक षडयंत्र है. अब सरकारी बुद्धिजीवी यह फतवा दे रहे हैं कि यह भाषा व्यावहारिक नहीं है, कठिन है. अत: यह राजभाषा नहीं हो सकती. सरकारी देखरेख में हिंदी को न तो संस्कृत की तरह परिमार्जित किया जा रहा है और न ही इसका फलक व्यापक बनाया जा रहा है. हां अशुद्ध अनुवाद, जटिल और अस्पष्ट शब्दों के प्रयोग और समझ में न आने वाले वाक्य सरकारी हिंदी को न समृद्ध कर रहे हैं, न लोकप्रिय बना रहे हैं. बल्कि इसकी जड़ों पर प्रहार कर रहे हैं. दूसरी भाषाओं के सरल और सहज शब्दों को अपनाने में हिंदी का एक बड़ा तबका संकोच करता है. वस्तुत: भाषा की समृद्धि का यह राज है कि वह विकास की प्रक्रिया में दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचा लेती है. यह भाषा की कमी नहीं, उसकी विशेषता है. 1752 के आसपास चंद हजार शब्द अंगरेजी की कुल संपदा थे. फिलहाल उसके पास 18-20 लाख शब्द हैं. इनमें 40 फीसदी शब्द लैटिन, ग्रीक और फ्रेंच से अंगरेजी में आये हैं. वनस्पतिशास्त्र में सभी पौधों के नाम लैटिन में हैं. अब सरकारी हिंदी में रिक्शा के लिए .नरयान. और .स्टेशन. के लिए स्थात्र जैसे शब्दों के प्रयोग हो रहे हैं. सरकारी परिपत्रों के हिंदी अनुवाद समझ में ही नहीं आते.