Business Studies, asked by cufee8547, 6 months ago

Vaystrosyokti kiss prakar vayabsay ki nae pradti ka pratinidhitab karta h hindi main long ans

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प्रकृतिवाद (Naturalism) पाश्चात्य दार्शनिक चिन्तन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्त्व मानती है, इसी को इस बरह्माण्ड का कर्ता एवं उपादान (कारण) मानती है। यह वह 'विचार' या 'मान्यता' है कि विश्व में केवल प्राकृतिक नियम (या बल) ही कार्य करते हैं न कि कोई अतिप्राकृतिक या आध्यातिम नियम। अर्थात् प्राक्रितिक संसार के परे कुछ भी नहीं है। प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करते।

यूनानी दार्शनिक थेल्स (६४० ईसापूर्व-५५० इसापूर्व) का नाम सबसे पहले प्रकृतिवादियों में आता है जिसने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। किन्तु स्वतन्त्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण डिमोक्रीटस (४६०-३७० ईसापूर्व) ने किया।

प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। प्रो. सोर्ले का विचार है कि प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जिसके अनुसार स्वाभाविक अथवा निर्माण की शक्ति मनुष्य के शरीर को नहीं दी जा सकती। प्रकृतिवाद सभ्यता की जटिलता की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप समाज के सम्मुख उपस्थित हुआ।

‘प्रकृति’ के अर्थ के संबंध में दार्शनिकों में मतभेद रहा है। एडम्स के अनुसार यह शब्द अत्यन्त जटिल है जिसकी अस्पष्टता के कारण ही अनेक भूलें होती हैं। ‘प्रकृति’ को तीन प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रथम अर्थ में प्रकृति का तात्पर्य उस विशेष गुण से है जो मानव जीवन को विकास एवं उन्नति की ओर ले जाने में सहायक होते हैं। सर्वप्रथम रूसो ने ही प्रकृति के इस अर्थ से अवगत कराया। जिसके आधार पर डॉ॰ हाल ने ‘बाल केन्द्रित शिक्षा’ का स्वरूप विकसित किया। अतः प्रथम अर्थ में प्रकृति का तात्पर्य मानव स्वभाव से लिया जाता है। ‘प्रकृति’ का द्वितीय अर्थ ‘बनावट के ठीक विपरीत’ बताया गया। अर्थात् जिस कार्य में मनुष्य ने सहयोग न दिया हो वही प्राकृतिक है। ‘प्रकृति’ के तीसरे अर्थ के अनुसार ‘समस्त विश्व’ ही प्रकृति है तथा शिक्षा के अनुसार इसका तात्पर्य विश्व की क्रिया का अध्ययन तथा उसे जीवन में उतारने से है। कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि मनुष्य को प्रकृति की विकासवादी शृंखला में बाधक नहीं बनना चाहिए। अपितु उसे अलग ही रहना चाहिये। चूँकि विकास किसी व्यक्ति के बिना नहीं हो सकता है, व्यक्ति बिना प्रयोजन कार्य नहीं कर सकता, इसलिए कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि इस विकास के नियम का अध्ययन करना चाहिये तथा प्रकृति का अनुयायी हो जाना चाहिये।

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