vesvikaran sthar par loktantr ko badane me kin baato se madat milegi
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पश्चिमी देशों का पारंपरिक मध्य वर्ग वैश्वीकरण से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं क्लॉड समद्जा
यह एक अहम प्रश्न है कि क्या मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था (जैसी कि वह पश्चिमी देशों में अभी है) वैश्वीकरण के प्रभाव के बीच स्वयं को बरकरार रख पाएगी? इस मसले पर करीबी नजर डालने की आवश्यकता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था तीन मूलभूत तत्त्वों पर विकसित और विस्तारित हुई है। सबसे पहली बात, एक तेजी से उभरता और विकसित होता मध्य वर्ग जो अपने भविष्य को लेकर आत्मविश्वास से भरा हुआ है, उसे लगता है उसका काफी कुछ दांव पर है। यह वर्ग एक सुचारु लोकतंत्र के लिए अनिवार्य घटक है। दूसरी बात, कारोबार और राजनीति तथा बौद्घिकता और मीडिया जैसे प्रतिष्ठïानों के बीच राष्टï्रीय दृष्टिï के सम्मिलन का भाव आवश्यक है। हालांकि एक बड़ी आबादी के बीच तमाम राजनीतिक दल और विचारधाराएं खुद को स्थापित करने के लिए लगातार प्रतिस्पर्धा करते हैं लेकिन उसका भी महत्त्व है। तीसरा तत्त्व है एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों को बेहतर आर्थिक सुरक्षा मुहैया करा पाना, उनको व्यक्तिगत सुरक्षा देना और उनमें यह भावना भरना कि व्यवस्था में उनकी भी आवाज महत्त्व रखती है। परंतु सूचना क्रांति के दौर में वैश्वीकरण की प्रक्रिया के दौरान इन तीनों आधारभूत तत्त्वों पर बार-बार प्रश्न उठे हैं।
पश्चिम का पारंपरिक मध्य वर्ग बीते तीन दशक के दौरान वैश्वीकरण से अधिक प्रभावित हुआ है क्योंकि तकनीक-गुणवत्ता- उत्पादकता और उच्च वेतन के बीच का चक्र प्रभावित हुआ है और पारंपरिक मध्य वर्ग के जीवन स्तर में लगातार सुधार हुआ है। वैश्वीकरण के दौर में उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों ने एक नए तरह की प्रतिस्पर्धा पैदा की है। इसमें पारंपरिक गतिविधियों को तकनीकी नवाचार से चुनौती मिल रही है। इसने मध्य वर्ग के पूर्व प्राप्त कौशल को क्षति पहुंचाई। निश्चित तौर पर वैश्वीकरण के साथ सूचना प्रौद्योगिकी और वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के उभार ने भी एक नए मध्य वर्ग को जन्म दिया है। लेकिन इस श्रेणी का आकार पारंपरिक की तुलना में काफी छोटा है। बीते 20 वर्ष में पुराने मध्य वर्ग का न केवल आकार कम होने लगा है बल्कि उसके जीवन स्तर में भी गिरावट आई है। अमेरिका में वास्तविक औसत आय 1999 से 2013 के बीच 57,000 डॉलर से कम होकर 52,000 डॉलर पर आ गई। यह 9 फीसदी की गिरावट है। मैकिंजी ने एक अध्ययन में पाया कि 25 बेहतर अर्थव्यवस्था वाले देशों में से 65 से 70 फीसदी लोगों की आय वर्ष 2005 से 2014 के बीच पूरी तरह ठहरी रही। अमेरिका हो या यूरोप, राजनीतिक नेता इस मसले को हल करने में पूरी तरह नाकाम रहे। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में भरोसा छीजता गया।
ऐसे में यह भावना पैदा हुई कि व्यवस्था उन लोगों की ओर झुकी हुई है जो वरीय बुर्जुआ वर्ग की ओर झुकी हुई है जबकि मध्य वर्ग के हितों के प्रति किसी तरह का कोई सम्मान नहीं नजर आ रहा था। ऐसे में यह भावना उभरकर सामने आई कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चाहे जो भी राजनीतिक मतांतर हों या आबादी के बीच भी चाहे जो भेद हो लेकिन यह एक बड़ा साझा राष्ट्रीय निर्धारक है।
जनरल मोटर्स के मुख्य कार्याधिकारी ने सन 1953 में रक्षा मंत्री बनाए जाते समय कहा था कि वर्षों तक उनको लगता रहा कि जो देश के लिए बेहतर है वही जनरल मोटर्स के लिए भी सही है। वह इसके उलट बात को भी एकदम सही मानते थे। आज किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का मुखिया ऐसा कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में 'हम' बनाम 'वे' की सोच बढ़ रही है। ये हम और वे चाहे जो भी हों लेकिन इससे समाज का ध्रुवीकरण बहुत तेजी से बढ़ा है और राजनीतिक बहसों में लोग सख्त रुख अपनाने लगे हैं।
कॉर्पोरेट जगत के कई धड़े और बौद्घिक जगत भी निराश मध्य वर्ग की कोई मदद नहीं कर पाया। इनका यही मानना था कि लोग वैश्वीकरण को ठीक तरह से समझ नहीं पा रहे हैं और वे उसका किस प्रकार फायदा उठा सकते हैं। ऐसे में लंबे समय तक वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के परेशान करने वाले असर के बारे में तमाम बातें और तथ्य सामने रखे गए लेकिन वे महज जुबानी जमाखर्च बनकर रह गए। इस तरह भविष्य को लेकर एक पूरी आबादी की बढ़ती हताशा का निराकरण करने की कोशिश की गई।
इस तरह तीसरा मूल तत्त्व सवालों के घेरे में आता है। यानी सभ्यता का स्तर और समाज की लोकतांत्रिक उपलब्धियां जिनका आकलन मोटे तौर पर आर्थिक सुरक्षा, व्यक्तिगत सुरक्षा और समाज द्वारा लोगों को दिए जा सकने वाले आश्वासन आदि से किया जा सकता है। बहरहाल, विकसित देशों में पारंपरिक मध्य वर्ग के सदस्यों की आर्थिक सुरक्षा कमोबेश गायब ही हो गई है। उनको लंबे समय तक काम करना पड़ रहा है और उनका पेंशन लाभ पहले से कम हो गया है। उनके बच्चों का भविष्य भी आर्थिक रूप से कम सुरक्षित है। ऐसे में उनको लगता है कि उनका सामाजिक और दैनिक जीवन कम सुरक्षित है और बड़े पैमाने पर प्रवासियों के आगमन ने उनकी पहचान को भी खतरा उत्पन्न किया है। ये लोग दुनिया के अलग-अलग इलाकों और अलग-अलग पृष्ठïभूमि से आते हैं।
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के मूलभूत तत्त्वों का यूं गायब होते जाना लंबे समय तक बरकरार रहने वाला रुझान है? ऐसी संभावना है कि निकट भविष्य में यह सिलसिला चले। कुछ मायनों में देखा जाए तो हर क्षेत्र में स्वयंसेवी संगठनों की संख्या में अचानक तेजी आ गई है। यह बात भी हमारे अब तक के लोकतंत्र को अमल में लाने के तरीके पर सवाल खड़ा करता है। इन संस्थानों में से कई की वित्त प्राप्ति की व्यवस्था काफी अस्पष्टï है, उनका कामकाज, वास्तविक आकार आदि सभी को लेकर सवाल हैं और ये सामान्य प्रक्रिया से अलग हैं। इनमें से कई सोशल मीडिया के चतुराई भरे इस्तेमाल से काफी प्रभाव उत्पन्न कर लेते हैं और सरकारों और संसद तक पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं।