Hindi, asked by jeshron69, 7 months ago

Vigyapan Lekhan on Uttarakhand Food.(Hindi)

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Answered by varinderpaul788
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पहाड़ी भोजन न सिर्फ स्वाद में आगे होता है, बल्कि यह पौष्टिक भी होता है। इसलिए तमाम लोग आज इसे एक नया रूप दे रहे हैं। कभी झंगोरे के मफिन बनाकर, तो कभी सिसूण का सूप बनाकर इनकी लोकप्रियता बढ़ा रहे हैं।नए साल की अगवानी करने और बीतते साल से विदा लेने का एक दिलचस्प आयोजन उत्तराखंड सरकार के पर्यटन विभाग ने एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक तथा मसूरी की होटल बिरादरी के सहयोग से किया। ‘विंटर कार्निवल, का एक प्रमुख आकर्षण उत्तराखंड के भोजन का महोत्सव था। माल रोड पर सजे स्टॉलों पर निवासियों और पर्यटकों के मुंह में पानी भर लाने को और ठंड तत्काल दूर भगाने को बहुत कुछ था। हमारी समझ में महत्वपूर्ण बात यह थी कि पहाड़ी खाने के स्वाद के साथ-साथ सेहत के लिए फायदेमंद पक्ष को अनायास उजागर किया जा सका।

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इसे पारंपरिक रूप से लोहे की कड़ाही में घंटों पकाया जाता है

इसे पारंपरिक रूप से लोहे की कड़ाही में घंटों पकाया जाता है - फोटो : social media

एक से अधिक ‘खोमचों’ पर पहाड़ी दालें थीं- कहीं ‘काले भट्ट’ की चुटकाणी तो, कहीं पथरी का रामबाण इलाज समझी जाने वाली ‘गहत’ यानी कुल्थी की दाल। इनके अलावा तूर यानी पहाड़ी अरहर और कभी गोरे ‘राजा’ विल्सन की राजधानी रहे हरसिल के मशहूर राजमा भी नजर आ रहे थे। काले भट्ट की दाल को बहुत पौष्टिक समझा जाता है और इसे पारंपरिक रूप से लोहे की कड़ाही में घंटों पकाया जाता है, ताकि इसमें लौह की मात्रा बढ़ जाए। इसका जायका जंबू या जखिये के छौंक से और भी अधिक लुभावना हो जाता है। शुद्ध घर का बना घी, हाथ खोलकर उड़ेल दिया जाए तो कहना ही क्या। कई दालों के गाढ़े सूप ‘रस’ अथवा ‘टट्वाणी’ का मुख्य तत्व, यही दाल है। काले भट्ट सोयाबीन की ही प्रजाति के हैं और इसमें निहित सुपाच्य शाकाहारी पनीर का गुणगान करते पोषण वैज्ञानिक नहीं थकते। पूर्वी एशिया में ‘टोफू’ नामक पनीर इनसे ही बनाया जाता है। गहत/कुल्थी की दाल से ‘फाणू’ भी तैयार किया जाता है, जिसमें दाने मुंह में नहीं लगते और इसकी तासीर भी एक से अधिक ‘खोमचों’ पर पहाड़ी दालें थीं- कहीं ‘काले भट्ट’ की चुटकाणी तो, कहीं पथरी का रामबाण इलाज समझी जाने वाली ‘गहत’ यानी कुल्थी की दाल। इनके अलावा तूर यानी पहाड़ी अरहर और कभी गोरे ‘राजा’ विल्सन की राजधानी रहे हरसिल के मशहूर राजमा भी नजर आ रहे थे। काले भट्ट की दाल को बहुत पौष्टिक समझा जाता है और इसे पारंपरिक रूप से लोहे की कड़ाही में घंटों पकाया जाता है, ताकि इसमें लौह की मात्रा बढ़ जाए। इसका जायका जंबू या जखिये के छौंक से और भी अधिक लुभावना हो जाता है। शुद्ध घर का बना घी, हाथ खोलकर उड़ेल दिया जाए तो कहना ही क्या। कई दालों के गाढ़े सूप ‘रस’ अथवा ‘टट्वाणी’ का मुख्य तत्व, यही दाल है। काले भट्ट सोयाबीन की ही प्रजाति के हैं और इसमें निहित सुपाच्य शाकाहारी पनीर का गुणगान करते पोषण वैज्ञानिक नहीं थकते। पूर्वी एशिया में ‘टोफू’ नामक पनीर इनसे ही बनाया जाता है। गहत/कुल्थी की दाल से ‘फाणू’ भी तैयार किया जाता है, जिसमें दाने मुंह में नहीं लगते और इसकी तासीर भी दाल की तरह गर्म होती है। दाल को गाढ़ा करने के लिए अक्सर स्थानीय अरबी मिलाई जाती है।इन दालों का भरपूर आनंद लेना हो, तो इनकी जुगलबंदी करें मोटे लाल या भूरे चावल के साथ! इस भोजन महोत्सव में कुल्थी की दाल को कंडाली/सिसूण अर्थात् बिच्छू बूटी के पत्तों के साथ मिला कबाब भी पेश किए गए थे। यह कमाल का प्रयोग पेशेवर बावर्चियों ने नहीं, गृहणियों ने तथा शौकिया खाना पकाने वाली महिलाओं ने साधा था। इन्हीं के ठीये पर कुल्थी की दाल से भरे मड़ुए के पराठे भी चखने को मिले और मड़ुए-अखरोट का चॉकलेटी केक भी। एक होटल के शेफ ने खालिस बिच्छू बूटी का सूप पिलाया, तो एक अन्य ताराछाप होटल वालों ने ‘झंगोरा’ के मफिन बनाकर यह प्रमाणित किया कि जरूरी नहीं इन बेहद फायदेमंद पदार्थों का आनंद हम आधुनिक व्यंजनों में नहीं ले सकते। मड़ुए/रागी से तैयार किए गए डोसे, इडली तथा उत्तपम बाजार में उतारे जा चुके हंै। उडूपी कैफे माल रोड के एक छोर पर सजा था पर भीड़ वहां कम नहीं थी। जरूरत इस बात की है कि उत्तराखंड के इन उत्पादों के बारे में लोगों की जानकारी बढ़ाई जा सके और वैकल्पिक पाक विधियों को साझा भी किया जाए। एक संस्था ने बहुत आकर्षक और किफायती पैकटों में ‘मड़ुआ’ तथा अन्य उत्पादों की नुमाइश सजाई थी।मसूरी के पुराने हलवाई पंकज अग्रवाल ने जबरदस्त जादू जगा रखा था, अपने मड़ुए के समोसों के अलावा ‘शिलाजीत की चाय’ से! उत्तराखंड के खाने के बारे में असाधारण जानकारी रखने वाले इस सज्जन का मानना है कि हमारे देश के कुल 11 पहाड़ी राज्यों के भोजन में अद्भुत साम्य है और मोटे अनाज, विशेष दालों, हरी सब्जियों, वनौषधियों के मसाले की तरह उपयोग के कारण इसका सेहत पर फायदेमंद असर पड़ता है। उनका यह भी मानना है कि जरूरी नहीं हम स्थानीय उपज का पारंपरिक व्यंजनों में ही उपयोग करें। इनकी लोकप्रियता तभी बढ़ सकती है, जब नई पीढ़ी अपनी रुचि के व्यंजनों में अपनी तरह से इन्हें काम लाने लगेगी। यह आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में यह आयोजन सभी पहाड़ी राज्यों की खानपान विरासत का प्रमुख मंच बन सकेगा।

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