vijecha doon khambatil antar sentimeter madhe mojane jast soyeche aahe ki, meter Marathi
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वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता।’ वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।
दरअसल, नई जीवनशैली और नए मूल्य बूढ़ों को समाज में कोई जगह नहीं देते, बल्कि उन्हें उनकी जगह से भी विस्थापित करते हैं। विकास की अबाध गति उन्हें असहाय छोड़ देती है और वे निसहाय से अपने अतीत के गलियारों में डोलने लगते हैं। आज का समाज सेवानिवृत्त होते ही उस व्यक्ति को नकार देता है, वह चाहे जितना ही साधन संपन्न हो, उसकी पूछ कम हो जाती है और लोग उसे अभिवादन की सामान्य औपचारिकता प्रदान करने में भी कोताही करने लगते हैं।
आज जहां अधिकांश परिवारों में भाइयों के मध्य इस बात को लेकर विवाद होता है कि वृद्ध माता-पिता का बोझ कौन उठाए, वहीं बहुत से मामलों में बेटे-बेटियां, धन-संपत्ति के रहते माता-पिता की सेवा का भाव दिखाते हैं, पर जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री तथा वसीयतनामा संपन्न होते ही उनकी नजर बदल जाती है। इतना ही नहीं संवेदनशून्य समाज में इन दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं, जब संपत्ति मोह में वृद्धों की हत्या कर दी गई।
ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और न करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुजुर्गों को ‘ओल्ड होम्स’ में शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपि ‘ओल्ड होम्स’ की स्थिति भी ठीक नहीं है।