Sociology, asked by adeshthakur, 1 year ago

Vikas ki avdharna ki vyakhya kijiye

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Answered by sonali377
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किसी भी बच्चे की मानसिक, भावनात्मक, सामिजिक बौद्धिक आदि पक्षों में परिपक्वता बाल विकास कहलाती है | विकास में वे सभी परिवर्तन शामिल हैं जो जीवन भर चलते हैं | यह एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है जो जन्म से मृत्यु तक चलती है | कुछ मनोवैज्ञानिक विकास तथा वृद्धि को एक समान समझते हैं , परन्तु दोनों भिन्न हैं | शारीरिक सरंचना या आकार का बढ़ना वृद्धि कहलाती है जबकि सामाजिक, बौद्धिक, भावनात्मक तथा मानसिक पक्षों में परिपक्वता विकास कहलाती है | विकास में सभी परिणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन शामिल हैं जो आजीवन चलते रहते हैं | कहने का अभिप्राय है की विकास वृद्धि क बाद  चलता रहता है तथा विकास के बिना वृद्धि का कोई अर्थ नहीं है|


अभिवृद्धि तथा विकास में मुख्या अंतर :

अभिवृद्धि :
१. अभिवृद्धि का सवरूप बाह्य है|
२. अभिवृद्धि कुछ समय बाद रुक जाती है|
३. अभिवृद्धि का प्रयोग संकुचित अर्थ में होता है |
४. अभिवृद्धि में कोई निश्चित क्रम नहीं होता |
५. अभिवृद्धि की कोई निश्चित दिशा नहीं होती |
६. अभिवृद्धि को मापा जा सकता है जैसे ऊंचाई लम्बाई तथा भार  सकते हैं|

विकास :
१. विकास आंतरिक होता है |
२. विकास आजीवन चलता है|
३. विकास शब्द का व्यापक अर्थ होता है|
४. विकास में एक निश्चित क्रम होता है|
५. विकास की एक निश्चित दिशा होती है| 
३. विकास को माप नहीं सकते बुद्धि को मापने का कोई नहीं है| 

विकास की अवस्थाएं
प्रत्येक बच्चे के विकास  विभिन्न अवस्थाएं होती हैं| इन्ही में बच्चों का निश्चित विकास होता है | इसी बात को ध्यान में रखते हुए विकास को निम्न चरणों में बनता गया है|
१. बाल्यावस्था                    →                       जन्म से तीन वर्ष तक         
२. प्रारंभिक शैशवावस्था      →                        तीन से छह वर्ष
३. मध्य शैशवावस्था            →                        छह वर्ष से नौ वर्ष
४. अत्याशैशवावस्था            →                       नौ वर्ष से बारह वर्ष
५. पूर्व किशोरावस्था            →                        11 से 15 वर्ष
६. किशोरावस्था                 →                         15 से 18वर्ष
७. व्यस्क                          →                           18 वर्ष से ऊपर

रॉस महोदय के अनुसार विकास की अवस्थाएं : 
1.शैशवावस्था            →               1 से 5 वर्ष
2. बाल्यावस्था            →               5 से 12 वर्ष   
3. किशोरावस्था         →               12 से 18वर्ष   
4. प्रौढ़ावस्था              →               18 वर्ष से ऊपर


सोरेनसन सामाजिक विकास  अभिप्राय दुसरो क साथ मिल जुल कर चलने की बढ़ती हुई योग्यता से है
हरलॉक सामाजिक विकास से अभिप्रायः सामाजिक सम्बंधों  परिपक्वता प्राप्त करने से है |

उपरोक्त परिभाषाओं से निम्न तथ्य निकल कर सामने एते हैं : 
१. बच्चे के दूसरे व्यक्तियों के संपर्क में एते ही उसके समाजीकरण की प्रक्रिया  जाती है |
२. सामाजिकरण की प्रक्रिया से व्यक्ति को अनेक सामाजिक गुणों को सिखने में सहायता प्राप्त होती है|
३. इस प्रकार से ज्ञान अर्जित करने वाला व्यक्ति समाज से भोत जल्दी तालमेल बिठा सकता है |

शैशवावस्था में सामाजिक विकास
इस अवस्था में बालक सामाजिकता से परे होता है| वह केवल  अपनी शारीरिक आवश्यकता को पूरा करने में लगा रहता है | बालक में  सामाजिक व्यहार तब दीखता है जब वह व्यक्तियों और वस्तुओ  अंतर समझने लगता है |
बाल्यावस्था में विकास
इस अवस्था में बच्चे में समूह बनाने की क्षमता का विकास हो जाता है|
किशोरावस्था में सामाजिक विकास  
किशोर विद्यार्थियों के साथ समूह बनाने की कोशिश करता है | लिंग सम्बन्धी चेतना का विकास हो जाता है| विशेष रुचियाँ जागृत हो जाती हैं | 

नैतिक एवं भावनात्मक विकास
नैतिक विकास का अर्थ है बच्चों में नैतिक संकल्पना का विकास करना नैतिक संकल्पना के अंतर्गत ईमानदारी , सत्यनिष्ठा , निश्छलता की भावना का विकास करना `प्रत्येक समाज में कुछ कर्यों को सही और कुछ को गलत समझता है | बच्चों की नैतिक नैतिक एवं भावनात्मक विकास
नैतिक विकास का अर्थ है बच्चों में नैतिक संकल्पना का विकास करना नैतिक संकल्पना के अंतर्गत ईमानदारी , सत्यनिष्ठा , निश्छलता की भावना का विकास करना `प्रत्येक समाज में कुछ कर्यों को सही और कुछ को गलत समझता है |

नैतिक विकास का स्वरूप 
समाज द्वारा स्वीकृत व्यव्हार को सिखने लिए काफी समय लगाना पड़ता है | हम अपेक्षा करते हैं कि बच्चे स्कूल में प्रवेश करने करने से पहले सामान्य स्थिति में सही गलत का अंतर करने की क्षमता विकसित हो चुकी होगी तथा उसे एक अच्छे या बुरे में अंतर करने की समाझ होगी | अच्छा व्यक्ति बनने के लिए सबसे पहले समाज के कानूनों कानूनों, नियमों और  रिवाजो का पालन करना अनिवार्य होता है

संवेगात्मक विकास 
संवेग व्यक्ति क आवेश को व्यक्त करता है | भय , क्रोध , घृणा ,वातसल्य ,करुणा , आश्चर्य कुछ प्रमुख संवेग हैं | संवेगों का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है | धनात्मक संवेग व्यक्ति के व्यवहार को परिपूर्ण बनाता है संवेग की स्थिति में व्यक्ति की सोचने की क्षमता शिथिल पद जाती है | शैशवावस्था में संवेगात्मक व्यव्हार अस्थिर होता है जो बाल्यावस्था तक स्थिरता की और अग्रसर होने लगता है

मानसिक विकास 
मानसिक विकास से अभिप्राय शक्तियों तथा सम्वेदनशीलता ,अवलोकन , स्मृति ध्यान , कल्पना ,चिंतन बूढी , तर्क अदि में वृदि से आता है शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में में मानसिक विकास अत्यंत तीव्र गति से होता है
पियाजे के अनुसार संज्ञात्मक विकास की चार अवस्थाएं हैं संवेदात्मक गामक अवस्था , पूर्व सक्रियात्मक अवस्था बी, मूर्त सक्रियात्मक अवस्था तथा औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था |  पियाजे ने संगठन तथा अनुकूल योग्यताओं को संज्ञानात्मक कार्य की दो प्रमुख विशेषता बताया है |
 

विकास को प्रभावित करने वाले कारक
१. वंशानुक्रम 
२. वातावरण 
३. बुद्धि  
४. लिंग 
५. अंतः स्त्रावी ग्रंथियां 
६. जन्म क्रम 
८. पोषाहार 
९. शुद्ध वायु एवं प्रकाश 



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