viplav gayan prasang and vyakhya
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कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल पुथल मच जाए।
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल पुथल मच जाए।एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए।
इन पंक्तियों में कवि से अनुरोध किया जा रहा है कि वह कोई ऐसी तान सुनाए जिससे हर तरफ उथल पुथल मच जाए। उथल पुथल इतनी तेज हो कि एक तरफ से एक झोंका आये तो दूसरी तरफ से दूसरा झोंका। यह कविता उस समय लिखी गई थी जब भारत का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था। कवि ने भी असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। यहाँ पर उथल पुथल का मतलब है लोगों को उनकी तंद्रा से झकझोर कर उठाना ताकि वे गुलामी के खिलाफ लड़ाई लड़ने को तैयार हो जायें।
सावधान! मेरी वीणा में चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
सावधान! मेरी वीणा में चिनगारियाँ आन बैठी हैं,टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ दोनों मेरी ऐंठी हैं।
सावधान! मेरी वीणा में चिनगारियाँ आन बैठी हैं,टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ दोनों मेरी ऐंठी हैं।कंठ रुका है महानाश का मारक गीत रुद्ध होता है,
सावधान! मेरी वीणा में चिनगारियाँ आन बैठी हैं,टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँ दोनों मेरी ऐंठी हैं।कंठ रुका है महानाश का मारक गीत रुद्ध होता है,आग लगेगी क्षण में, हृत्तल में अब क्षुब्ध युद्ध होता है।
इन पंक्तियों में कवि का कहना है उसकी वीणा में चिंगारियाँ प्रवेश कर चुकी हैं। वीणा की मिजराबें (तार को छेड़ने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला छोटा उपकरण) टूट चुकी हैं और वीणा बजाने वाले की अंगुलियाँ ऐंठ गई हैं। गायक का गला बैठ जाने के कारण उसके मुँह से निकलने वाले महानाश के गीत का रास्ता रुका हुआ है। उस रुकावट से शीघ्र ही उसके तन बदन में आग लगेगी और हृदय क्षुब्ध हो जायेगा। इन पंक्तियों में कवि ने किसी भी स्वतंत्रता सेनानी के हृदय में बसने वाले क्रोध और संताप को दिखाने की कोशिश की है। जब हर तरफ से प्रतिबंध लगने लगते हैं तो ऐसे में किसी भी वीर सिपाही का खून खौलेगा।
झाड़ और झंखाड़ दग्ध है इस ज्वलंत गायन के स्वर से,
झाड़ और झंखाड़ दग्ध है इस ज्वलंत गायन के स्वर से,रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से।
झाड़ और झंखाड़ दग्ध है इस ज्वलंत गायन के स्वर से,रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से।कण-कण में है व्याप्त वही स्वर रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,
झाड़ और झंखाड़ दग्ध है इस ज्वलंत गायन के स्वर से,रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है निकली मेरे अंतरतर से।कण-कण में है व्याप्त वही स्वर रोम-रोम गाता है वह ध्वनि,वही तान गाती रहती है, कालकूट फणि की चिंतामणि।
सारे बंधनों को तोड़कर जब गाने वाले के स्वर फूटते हैं तो उससे जो अग्नि निकलती है उससे हर तरफ आग लग जाती है। कवि के अवरुद्ध गले से जब क्रोधित होकर गीत निकलता है तो ऐसा ही लगता है। कवि जब गाने लगता है तो कण-कण में उसकी ज्वाला फैल जाती है। तब ऐसा लगता हि जैसे किसी विषधर के फण में लगी मणि से ज्वाला फूट रही हो।
आज देख आया हूँ जीवन के सब राज समझ आया हूँ,
आज देख आया हूँ जीवन के सब राज समझ आया हूँ,भ्रू-विलास में महानाश के पोषक सूत्र परख आया हूँ।
पराधीनता के लंबे संघर्ष ने कवि को जीवन के सभी राज का मर्म समझा दिया है। कवि को पता चल गया है कि किस तरह उस गुलामी के विनाश के सूत्र काम करते हैं। अब वह पराधीनता का विनाश करने को पूरी तरह तैयार है।