English, asked by arpitakhuntia2003, 17 hours ago

Vitan chapter 5 class 11 summary

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Answered by adharshilasapna
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“गलता लोहा” पाठ के लेखक शेखर जोशी जी हैं। शेखर जोशीजी की यह कहानी एक ऐसे प्रतिभाशाली ब्राह्मण बालक की कहानी है जिसकी प्रतिभा को उसके जीवन में आयी विपरीत परिस्थितियों ने छीन लिया। दूसरा यह कहानी हमारे समाज में फैली जातिगत विभाजन को भी उजागर करती है जिसमें ब्राह्मण वर्ग के लोगों का शिल्पकार वर्ग के लोगों के बीच उठना – बैठना मर्यादा के विरुद्ध माना जाता है। हालाँकि यह पुराने समय की बात है।लेकिन इस कहानी का नायक , ब्राह्मण बालक मोहन जातीय आधार पर बनाए गए इन भेदभावों को भुलाकर लोहे के आँफर में लोहे को गला कर उसे एक नया आकार देने की कोशिश करता है यानि लोहार का कार्य करता है। जो उस समय के हिसाब से एक ब्राह्मण पुत्र के लिए नियम के विरुद्ध था।

(ऑफर , वह जगह होती है जहां पर आग की भट्टी में लोहे को गला कर उससे अनेक तरह के लोहे के बर्तन या औजार बनाए जाते है यानि लोहे के औजार या बर्तन बनाने की जगह को ऑफर कहा जाता है।)

कहानी की शुरुआत करते हुए शेखर जोशी जी कहते हैं कि मोहन एक गरीब ब्राह्मण बालक हैं जिसके पिता बंशीधर पुरोहिताई (पण्डितगिरि) का काम कर अपना घर चलाते हैं । लेकिन समय के साथ अब वो काफी वृद्ध हो चुके हैं। इसीलिए अब दिन प्रति दिन उनके लिए पुरोहिताई का काम करना मुश्किल होता जा रहा है।

एक दिन बंशीधरजी को गणनाथ जाकर अपने यजमान चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ यानी भोले शंकर की आराधना करनी थी। लेकिन वहां पहुंचने के लिए दो मील की सीधी (खड़ी) चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। जो इस अवस्था में उनके बस की बात नहीं थी।लेकिन पुराने यजमान होने की वजह से वो उन्हें मना भी नहीं कर पा रहे थे। इसीलिए वो इस उम्मीद से मोहन को यह बात बताते हैं कि शायद वह जाकर चंद्रदत्त जी के यहां रुद्रीपाठ कर आये। लेकिन मोहन को इस तरह के पूजा पाठ व अनुष्ठान करने का कोई अनुभव नहीं था। इसीलिए उसने अपने पिता को कोई जवाब नही दिया और अपनी हंसुवा (घास काटने की दराँती) उठाकर खेतों के किनारे उग आयी कांटेदार झाड़ियों को काटने के लिए निकल पड़ा । लेकिन दराँती की धार खत्म हो चुकी थी।

दराँती में धार लगाने के उद्देश्य से वह अपने स्कूल के दोस्त धनराम के आँफर में पहुंच गया। धनराम उस समय अपने ऑफर में लोहे के औजार बनाने में व्यस्त था। मोहन वही एक कनस्तर में बैठ कर धनराम को काम करते हुए ध्यान से देखने लगा।चूंकि बचपन में दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे और मास्टर त्रिलोक सिंह दोनों को ही पढ़ाते थे। इसलिए मोहन ने धनराम से मास्टर त्रिलोक सिंह के बारे में पूछा । धनराम ने मोहन को मास्टर त्रिलोक सिंह के गुजर जाने (मृत्यु) के बारे में बताया। इसके बाद दोनों दोस्त पुरानी बातों को याद करने लगे।

स्कूल के सभी बच्चे मास्टर त्रिलोक सिंह से बहुत डरते थे। लेकिन पूरी कक्षा में मोहन मास्टरजी का सबसे चहेता शिष्य था क्योंकि पढ़ाई के साथ-साथ वह हर चीज में अव्वल रहता था। इसीलिए मास्टर साहब ने उसे पूरे स्कूल का मॉनिटर बनाया हुआ था।

मास्टर साहब को मोहन से बहुत उम्मीदें थी। वो कहते थे कि यह लड़का एक दिन कुछ न कुछ बड़ा काम अवश्य करेगा। भले ही किसी सवाल का जबाब पूरी कक्षा में किसी बच्चे को न आये मगर मोहन उस सवाल का जवाब देकर मास्टर जी को संतुष्ट कर देता था।अगर मास्टर जी किसी बच्चे को डंडे मारने व कान खिंचने की सजा देना चाहते थे तो वो ये काम मोहन से करवाते थे। उन सभी बच्चों में धनराम भी एक था जिसने मास्टर जी के कहने पर मोहन से कई बार मार खाई थी । लेकिन धनराम इसका कभी बुरा नही मानता था।

धनराम पढ़ने लिखने में शुरू से ही बहुत कमजोर था। एक बार मास्टर जी ने उससे तेरह का पहाड़ा (Table of 13) सुनाने को कहा लेकिन वह उसे पूरा नहीं सुना पाया। इसके बाद मास्टरजी ने उसकी डंडे से खूब पिटाई की। स्कूल का नियम था , जो मार खाता था उसको अपने लिए खुद ही डंडा लाना पड़ता था।

पढाई में कमजोर होने के कारण धीरे – धीरे धनराम के पिता ने उसे आँफर का काम सीखाना शुरू कर दिया। और पिता गंगाराम की मृत्यु होने के बाद धनराम ने अपना पारिवारिक काम संभाल लिया।

प्राइमरी स्कूल पास करने के बाद मोहन को छात्रवृत्ति मिली। जिससे मोहन के पिता का हौसला और बढ़ गया। अब वो मोहन को बड़ा आदमी बनाने का सपना देखने लगे। इसीलिए उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए मोहन का एडमिशन दूसरे स्कूल में करा दिया।चूंकि नया स्कूल घर से चार मील की दूरी पर था। दो मील की सीधी चढ़ाई और एक नदी पार कर मोहन को स्कूल पहुंचना होता था। बरसात के दिनों में नदी का पानी अपने उफान पर होता था जिससे मोहन को स्कूल पहुंचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था।

एक बार मोहन उस उफनाई नदी को पार करने में डूबते -डूबते बड़ी मुश्किल से बच कर घर पहुंचा। इसके बाद बंशीधर अपने बच्चे के लिए बहुत चिंतित रहने लगे।

लेखक आगे कहते हैं कि एक बार उनकी ही बिरादरी का एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखने वाला युवक रमेश लखनऊ से छुट्टियों में गांव आया। रमेश जब मोहन के पिता से मिला तो मोहन के पिता ने अपने बेटे की पढ़ाई के संबंध में उससे अपनी चिंता प्रकट की।

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