Vivah Samaroh Mein dikhave ka prachalan nibandh
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Explanation:
घर में शादी का जिक्र आते ही सारा परिवार कभी चहकने लगता था। बूढ़े-जवान-बच्चे, सभी शादी में अपने-अपने हिस्से की खुशी ढूंढ़ने लगते थे। छ: महीने पहले ही गेहूँ साफ होने लगते थे, दर्ज़ी दो महीने पहले घर बैठ जाता था। बहन-बुआ, महीने भर पहले पीहर बुला ली जाती थी। 15 दिन पहले नाचना-गाना शुरू हो जाता था। रिश्तेदार-मोहल्ले वाले, गली को रंगमंच बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। एक नितान्त पारिवारिक समारोह। अपनी संस्कृति में रंगा उत्सव।
आज शादी का नाम आते ही उत्सव से अधिक मजबूरी का अहसास होने लगता है। सब तरफ परेशानी ही परेशानी। टेंट की, कपड़ों की, सोने की, घी-शक्कर की, हलवाई की। जाने क्या-क्या। यहाँ समाज के मध्यम और निम्र वर्ग की बात हो रही है। यह ध्यान रखे। दिखावे के सिरमौर उच्च वर्ग के लिए तो यह शान दिखाने की घटना होती है। हालांकि ‘उत्सव‘ या ‘आनन्द‘ से तो वे भी कोसों दूर होते हैं। समाज के उस 5 प्रतिशत या हद से हद 10 प्रतिशत हिस्से को फिलहाल भूल जाइये। यहाँ जिक्र हो रहा है, एक कर्मचारी का, एक साधारण किसान का, छोटे व्यापारी का, अध्यापक का, सोने-मिट्टी-लकड़ी-चमड़े के कारीगर का, मजदूर का। जी हाँ, यही वर्ग तो समाज का अधिकांश भाग बनाते हैं। तो जनाब, शादी की तैयारी और विशेषकर लड़की की शादी की तैयारी अब भी काफी पहले शुरू हो जाती है। 5-7 वर्ष पहले से ही। लेकिन खुशी में नहीं, मजबूरी में। सारा परिवार एक अजीब से तनाव में। घर का मुखिया शादी के बजट की गिनती सुबह-शाम करता रहता है। पत्नी ‘हैसियत‘ के अनुसार सम्बन्ध जुड़ने की चिंता में पतली होती जाती है और बेचारे बच्चे, रोज-ब-रोज अपने छोटे-छोटे सपनों को मारते रहते हैं। ‘कम खर्च में काम चलाओ, देखते नहीं घर में शादी होने वाली है‘ सुन-सुन कर वे उकता चुके होते हैं। घर की सुविधाओं में कटौती शुरू हो जाती है। राजस्थान के डेढ़ करोड़ परिवारों में से अधिकांश (90 प्रतिशत) आज इस परेशानी में है। हेकड़ी में भले कई बात को नकार जायें। हकीकत यही है।