Vrindavan ki sandhaya sthano ki sandhaya se kis prakar bhinn batai gai hai
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Explanation:
योगेश्वर श्रीकृष्ण अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। उनका चंचल बचपन हो या श्रेष्ठ आदर्श जीवन, उनके चमत्कार हों या श्रीमद्भगवदगीता में उनके द्वारा अर्जुन को दिया गया धर्म और कर्म का उपदेश। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब कण-कण में विद्यमान है। श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। श्रीकृष्ण लगभग 5,200 वर्ष से कुछ पूर्व (द्वापरयुग) इस भारत भूमि में जन्मे थे। हिंदू धर्म के अनुसार त्रिदेवों में से एक भगवान विष्णु आठवें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। श्रीकृष्ण को द्वापरयुग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। श्रीकृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है।
वर्तमान काल में भी श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन उतना ही प्रासंगिक है जितना द्वापरयुग में था। श्रीमद्भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने विस्तार से धर्म का समझाया है- जो मनुष्य धर्म का पालन करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है और जो धर्म का पालन न कर अधर्म का सेवन करता है धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिभज़्वति भारत:।
अभ्युत्थानमधमज़्स्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (चतुथज़् अध्याय, श्लोक 7)
अर्थात्- इस श्लोक का अथज़् है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धमज़्संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥ (चतुथज़् अध्याय, श्लोक 8)
अर्थात्- इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कमिज़्यों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
जिस तरह श्रीमद्भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने विस्तार से धर्म को समझाया है उसी प्रकार कर्म का भी पूर्ण वर्णन किया है। गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी ‘फल की इच्छा किए बिना कर्म’ करने की प्रेरणा दी।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात्: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
जिस तरह श्रीमद्भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने विस्तार से धर्म को समझाया है उसी प्रकार कर्म का भी पूर्ण वर्णन किया है। गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी ‘फल की इच्छा किए बिना कर्म’ करने की प्रेरणा दी।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात्: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।