what are sampradan karak in sanskrit .
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Sampradan Karak in Sanskrit – सम्प्रदान कारक (के लिए) – चतुर्थी विभक्ति – Sampradan Karak Ke Udaharan – संस्कृत, हिन्दी
May 21, 2020 by sastry
सम्प्रदान कारक – Sampradan Karak in Sanskrit
सम्प्रदान कारक – चतुर्थी विभक्तिः – Sampradan Karak in Sanskrit
(1) दानस्य कर्मणा कर्ता यं सन्तुष्टं कर्तुम् इच्छति सः सम्प्रदानम् इति कथ्यते (कारक) (कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्।) सम्प्रदाने च (‘चतुर्थी समप्रदाने’) चतुर्थी विभक्तिः भवति। (दान कर्म के द्वारा कर्ता जिसको सन्तुष्ट करना चाहता है वह सम्प्रदान कहा जाता है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है।) यथा-
नृपः निर्धनाय धनं यच्छति।
बालकः स्वमित्राय पुस्तकं ददाति।
(2) रुच्यर्थानां प्रीयमाण:
रुचि अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जो प्रसन्न होने वाला होता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा-
भक्ताय रामायणं रोचते। (भक्त को रामायण अच्छी लगती है।)
बालकाय मोदकाः रोचन्ते। (बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं।)
गणेशाय दुग्धं स्वदते। (गणेश को दूध पसन्द है।)
(3) क्रधदासयार्थानां यं प्रति कोप: – क्रद्ध आदि अर्थ वाली धातओं के प्रयोग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति आती है। यथा-
क्रुध् (क्रोध करना) – पिता पुत्राय क्रुध्यति।
द्रुह् (द्रोह करना) – किंकरः नृपाय द्रुह्यति।
ईर्घ्य (ईर्ष्या करना) – दुर्जनः सज्जनाय ईर्ध्यति।
असूय् (निन्दा करना) – सुरेशः महेशाय असूयति।
(4) स्पृहेरीप्सितः –
‘स्पृह’ धातु के प्रयोग में जो इच्छित हो उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा–
(i) स्पृह् (इच्छा करना) – बालकः पुष्याय स्पृह्यति। (बालक पुष्प की इच्छा करता है।)
(5) नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगाच्च – नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् और वषट् शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा–
नमः (नमस्कार) – रामाय नमः।
स्वस्ति (कल्याण) – गणेशाय स्वस्ति।
स्वाहा (आहुति) – प्रजापतये स्वाहा।
स्वधा (हवि का दान) – पितृभ्यः स्वधा।
वषट् (हवि का दान) – सूर्याय वषट्।
अलम् (समर्थ) – दैत्येभ्यः हरिः अलम्।
(6) धारेरुत्तमर्ण: – धृञ् (धारण करना) धातु के प्रयोग में जो कर्ज देने वाला होता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा-
देवदत्तः यज्ञदत्ताय शतं धारयति।
(देवदत्त यज्ञदत्त का सौ रुपये का ऋणी है)
(7) तादर्थ्य चतुर्थी वाच्या – जिस प्रयोजन के लिए जो क्रिया की जाती है उस प्रयोजन वाचक शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-
सः मोक्षाय हरिं भजति।
बालकः दुग्धाय क्रन्दति।
(8) निम्नलिखित धातुओं के योग में प्रायः चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा
कथय् (कहना) – रामः स्वमित्राय कथयति।
निवेदय् (निवेदन करना) – शिष्यः गुरवे निवेदयति।
उपदिश् (उपदेश देना) – साधुः सज्जनाय उपदिशति।
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सम्प्रदान कारक – Sampradan Karak in Sanskrit
सम्प्रदान कारक – चतुर्थी विभक्तिः – Sampradan Karak in Sanskrit
(1) दानस्य कर्मणा कर्ता यं सन्तुष्टं कर्तुम् इच्छति सः सम्प्रदानम् इति कथ्यते (कारक) (कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्।) सम्प्रदाने च (‘चतुर्थी समप्रदाने’) चतुर्थी विभक्तिः भवति। (दान कर्म के द्वारा कर्ता जिसको सन्तुष्ट करना चाहता है वह सम्प्रदान कहा जाता है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है।) यथा-
नृपः निर्धनाय धनं यच्छति।
बालकः स्वमित्राय पुस्तकं ददाति।
(2) रुच्यर्थानां प्रीयमाण:
रुचि अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जो प्रसन्न होने वाला होता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा-
भक्ताय रामायणं रोचते। (भक्त को रामायण अच्छी लगती है।)
बालकाय मोदकाः रोचन्ते। (बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं।)
गणेशाय दुग्धं स्वदते। (गणेश को दूध पसन्द है।)
(3) क्रधदासयार्थानां यं प्रति कोप: – क्रद्ध आदि अर्थ वाली धातओं के प्रयोग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति आती है। यथा-
क्रुध् (क्रोध करना) – पिता पुत्राय क्रुध्यति।
द्रुह् (द्रोह करना) – किंकरः नृपाय द्रुह्यति।
ईर्घ्य (ईर्ष्या करना) – दुर्जनः सज्जनाय ईर्ध्यति।
असूय् (निन्दा करना) – सुरेशः महेशाय असूयति।
(4) स्पृहेरीप्सितः –
‘स्पृह’ धातु के प्रयोग में जो इच्छित हो उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा–
(i) स्पृह् (इच्छा करना) – बालकः पुष्याय स्पृह्यति। (बालक पुष्प की इच्छा करता है।)
(5) नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगाच्च – नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् और वषट् शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा–
नमः (नमस्कार) – रामाय नमः।
स्वस्ति (कल्याण) – गणेशाय स्वस्ति।
स्वाहा (आहुति) – प्रजापतये स्वाहा।
स्वधा (हवि का दान) – पितृभ्यः स्वधा।
वषट् (हवि का दान) – सूर्याय वषट्।
अलम् (समर्थ) – दैत्येभ्यः हरिः अलम्।
(6) धारेरुत्तमर्ण: – धृञ् (धारण करना) धातु के प्रयोग में जो कर्ज देने वाला होता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा-
देवदत्तः यज्ञदत्ताय शतं धारयति।
(देवदत्त यज्ञदत्त का सौ रुपये का ऋणी है)
(7) तादर्थ्य चतुर्थी वाच्या – जिस प्रयोजन के लिए जो क्रिया की जाती है उस प्रयोजन वाचक शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-
सः मोक्षाय हरिं भजति।
बालकः दुग्धाय क्रन्दति।
(8) निम्नलिखित धातुओं के योग में प्रायः चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा
कथय् (कहना) – रामः स्वमित्राय कथयति।
निवेदय् (निवेदन करना) – शिष्यः गुरवे निवेदयति।
उपदिश् (उपदेश देना) – साधुः सज्जनाय उपदिशति।