What is the difference rural and urban in hindi?
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There is a big difference between urban and rural India. One of the majordifferences that can be seen between rural India and urban India, is their standards of living.
People living in urban India have better living conditions than those living in the rural parts of India. There is a wide economic gap between rural and urban India. Rural India is very poor when compared to Urban India.
People living in urban India have better living conditions than those living in the rural parts of India. There is a wide economic gap between rural and urban India. Rural India is very poor when compared to Urban India.
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☆☆ranshsangwan☆☆
विकास के दावों के बीच जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें आती हैं, तो इन कोशिशों के विद्रूप की ओर न सिर्फ ध्यान दिलाती हैं, बल्कि ऐसे दावों की एक हद तक कलई भी खोल देती हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें चूंकि कोई निजी संस्था या गैर सरकारी संगठन तैयार नहीं करता, लिहाजा इस पर सरकारों के लिए भी सवाल उठाने की गुंजाइश नहीं रह पाती। हाल में ग्रामीण और शहरी आबादी को लेकर इसकी जो शुरुआती रिपोर्ट आई है, वह फिर यह चेतावनी दे रही है कि तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद समावेशी विकास नहीं हो पा रहा। बल्कि देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और बढ़ी ही है।उदारीकरण के पीछे जिस पश्चिमी ट्रिकल डाउन सिद्धांत का आधार है, उसने मौजूदा विश्व व्यवस्था में विकास को लेकर कई सारी नई अवधारणाएं दी हैं। उन्हीं में से एक है शहरीकरण को विकास का पर्याय मानना। शहरों में पसरती झुग्गियां इस अवधारणा को ही मुंह चिढ़ाती रही हैं। अब इस पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट ने भी सवाल उठाया है। इसके मुताबिक, गांवों में सबसे गरीब 10 फीसदी लोगों के पास जहां 25,071 रुपये की संपत्ति है, वहीं शहरों के सर्वाधिक 10 प्रतिशत गरीबों के पास 300 रुपये की भी संपत्ति नहीं है। इसकी वजह यह है कि इनमें से ज्यादातर खाली हाथ गांवों से पलायन करके आए हैं।यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जमींदारी उन्मूलन जैसे कदमों से ग्रामीण इलाकों में उन लोगों के लिए भी आधार बना है, जिनके पास कभी जमीन नहीं हुआ करती थी। गांव में रहने के लिए उन्हें न तो किराया देना पड़ता है, न ही पानी के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन शहरी इलाकों में रहने के लिए किराया चुकाना पड़ता है। उदारीकरण ने पानी और शौच की भी कीमत वसूलनी शुरू की है। जबकि मजदूरी की दर उस लिहाज से नहीं बढ़ी, जिस लिहाज से महंगाई बढ़ी है। ऐसे में, उनके पास संपत्ति कैसे हो सकती है? उदारीकरण के तमाम दबावों के बावजूद भारतीय गांव अपनी हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ पाए हैं। अब भी वहां पानी और शौच के लिए कीमत नहीं चुकानी पड़ती। इसके अलावा खान-पान और दूसरे खर्च भी वहां शहरों के मुकाबले कम हैं।इस सर्वे से एक और बात सामने आई है। गांवों में जहां 98.3 फीसदी लोगों के पास संपत्ति है, वहीं शहरों में 93.5 लोगों के पास ही संपत्ति है। ट्रिकल डाउन थियरी में समृद्धि लाने में शहरीकरण की जिस भूमिका को बढ़ावा देने पर जोर है, उसे भी इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने गलत ठहराया है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि ग्रामीण इलाकों में अमीरों और गरीबों की संपत्ति में अंतर जहां महज 228 गुना है, वहीं शहरी इलाकों में यह फर्क पचास हजार गुना है। यानी मौजूदा सरकारी नीतियों का फायदा ज्यादातर शहरी वर्ग के उस क्रीमी लेयर को ही मिल रहा है, जिनका पुश्तों से कारोबार या व्यापार पर कब्जा रहा है। गांवों में संपत्तियों के वितरण में वैसी असमानता नहीं है।आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन के तमाम मकसदों में एक सामाजिक समानता को बढ़ावा देना भी था। ग्रामीण इलाकों की संपत्ति के आंकड़े यह साबित करते हैं कि जमींदारी उन्मूलन ने गांवों के गरीब की दशा बदली, जिसके पीछे राज्य की लोक कल्याणकारी भूमिका भी रही। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट ने यह सोचने का मौका दिया है कि हम विकास की मौजूदा अवधारणा और उसे बढ़ावा देने वाली नीतियों की तरफ सोचें। हमें शहरीकरण को विकास का आधार मानने की धारणा पर भी पुनर्विचार करना होगा।
विकास के दावों के बीच जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें आती हैं, तो इन कोशिशों के विद्रूप की ओर न सिर्फ ध्यान दिलाती हैं, बल्कि ऐसे दावों की एक हद तक कलई भी खोल देती हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें चूंकि कोई निजी संस्था या गैर सरकारी संगठन तैयार नहीं करता, लिहाजा इस पर सरकारों के लिए भी सवाल उठाने की गुंजाइश नहीं रह पाती। हाल में ग्रामीण और शहरी आबादी को लेकर इसकी जो शुरुआती रिपोर्ट आई है, वह फिर यह चेतावनी दे रही है कि तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद समावेशी विकास नहीं हो पा रहा। बल्कि देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और बढ़ी ही है।उदारीकरण के पीछे जिस पश्चिमी ट्रिकल डाउन सिद्धांत का आधार है, उसने मौजूदा विश्व व्यवस्था में विकास को लेकर कई सारी नई अवधारणाएं दी हैं। उन्हीं में से एक है शहरीकरण को विकास का पर्याय मानना। शहरों में पसरती झुग्गियां इस अवधारणा को ही मुंह चिढ़ाती रही हैं। अब इस पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट ने भी सवाल उठाया है। इसके मुताबिक, गांवों में सबसे गरीब 10 फीसदी लोगों के पास जहां 25,071 रुपये की संपत्ति है, वहीं शहरों के सर्वाधिक 10 प्रतिशत गरीबों के पास 300 रुपये की भी संपत्ति नहीं है। इसकी वजह यह है कि इनमें से ज्यादातर खाली हाथ गांवों से पलायन करके आए हैं।यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जमींदारी उन्मूलन जैसे कदमों से ग्रामीण इलाकों में उन लोगों के लिए भी आधार बना है, जिनके पास कभी जमीन नहीं हुआ करती थी। गांव में रहने के लिए उन्हें न तो किराया देना पड़ता है, न ही पानी के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन शहरी इलाकों में रहने के लिए किराया चुकाना पड़ता है। उदारीकरण ने पानी और शौच की भी कीमत वसूलनी शुरू की है। जबकि मजदूरी की दर उस लिहाज से नहीं बढ़ी, जिस लिहाज से महंगाई बढ़ी है। ऐसे में, उनके पास संपत्ति कैसे हो सकती है? उदारीकरण के तमाम दबावों के बावजूद भारतीय गांव अपनी हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ पाए हैं। अब भी वहां पानी और शौच के लिए कीमत नहीं चुकानी पड़ती। इसके अलावा खान-पान और दूसरे खर्च भी वहां शहरों के मुकाबले कम हैं।इस सर्वे से एक और बात सामने आई है। गांवों में जहां 98.3 फीसदी लोगों के पास संपत्ति है, वहीं शहरों में 93.5 लोगों के पास ही संपत्ति है। ट्रिकल डाउन थियरी में समृद्धि लाने में शहरीकरण की जिस भूमिका को बढ़ावा देने पर जोर है, उसे भी इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने गलत ठहराया है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि ग्रामीण इलाकों में अमीरों और गरीबों की संपत्ति में अंतर जहां महज 228 गुना है, वहीं शहरी इलाकों में यह फर्क पचास हजार गुना है। यानी मौजूदा सरकारी नीतियों का फायदा ज्यादातर शहरी वर्ग के उस क्रीमी लेयर को ही मिल रहा है, जिनका पुश्तों से कारोबार या व्यापार पर कब्जा रहा है। गांवों में संपत्तियों के वितरण में वैसी असमानता नहीं है।आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन के तमाम मकसदों में एक सामाजिक समानता को बढ़ावा देना भी था। ग्रामीण इलाकों की संपत्ति के आंकड़े यह साबित करते हैं कि जमींदारी उन्मूलन ने गांवों के गरीब की दशा बदली, जिसके पीछे राज्य की लोक कल्याणकारी भूमिका भी रही। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट ने यह सोचने का मौका दिया है कि हम विकास की मौजूदा अवधारणा और उसे बढ़ावा देने वाली नीतियों की तरफ सोचें। हमें शहरीकरण को विकास का आधार मानने की धारणा पर भी पुनर्विचार करना होगा।
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