Social Sciences, asked by sindhuk6672, 5 days ago

why should children not work as domestic worker what Labe the government can stop this

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Answered by lava2007
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The scheme involves establishment of special schools for child labour who are withdrawn from work. ADVERTISEMENTS: These special schools provide formal and informal education along with vocational training, and also provide a monthly stipend

Answered by AryanKrishna980
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भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में जाने कितने नायक भुला दिए गए। जाने कितने सेनानी उन्हीं के षड्यंत्रों का शिकार बने जिन्हें हम आज राष्ट्र के पिता तथा चाचा के रूप में विख्यात पढ़ते हैं।

ऐसी ही एक घटना थी, ऐसा ही एक विद्रोह था जिसके सेनानी यदि अपनों के षड्यंत्रों का शिकार नहीं बने होते तो अखण्ड भारत का विभाजन भी नहीं होता, और अंग्रेज़ों को भारत से लुट पिट कर जान बचा कर भागना पड़ा होता।

विद्रोह की स्वत:स्फूर्त शुरुआत 1946 में RIN यानि कि "रॉयल इंडियन नेवी" (नौसेना) के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत 'आई.एन.एस. तलवार' से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने, नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फ़रवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल, अगले ही दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी।

19 फ़रवरी को एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे और भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी।

मुंबई के ऐतिहासिक 'गेटवे ऑफ इंडिया' और ताजमहल होटल के निकट स्थित रॉयल नेवी के कोस्टल ब्रांच में तैनात नाविकों ने अपने अंग्रेज़ अफसरों को उनके कमरों और शौचालय में बंद कर दिया था। यही घटना कुछ अन्य जहाज़ों पर भी हुई। सबके हाथ हथियार लग गया। बावर्ची, सफाई कर्मचारी, खाना परोसने वाले और यहाँ तक की सैनिक बैंड के सदस्यों ने भी हथियार लूट लिए थे।" विद्रोह ने इतना गंभीर रूप धारण कर लिया था कि नाविक चेन्नई से कराची तक विद्रोह पर उतर आए थे।

इस विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कलकत्ता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फ़रवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 युद्धक जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे।

नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुध्द हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष खदबदाने और विद्रोह की सम्भावना की ख़ुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।

ऐसे नाजुक समय में उनके (अंग्रेजों के) तारणहार की भूमिका में "कांग्रेस और लीग के नेता" आगे आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह, मजदूरों द्वारा उसके समर्थन से राष्ट्रीय आन्दोलन का काँग्रेस तथा मुस्लिम लीग नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था।

फिर बहुत सोच समझ कर, जिन्ना की सहायता से "सरदार पटेल" को आगे किया गया। उन्होंने काफी कोशिशों के बाद 23 फ़रवरी को नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार कर लिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि कांग्रेस और लीग उन्हें अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और "नौसैनिकों के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया"। मार्च '46 में आन्‍ध्र के एक कांग्रेसी नेता को लिखे पत्र में सेना के अनुशासन पर बल देने का कारण पटेल ने यह बताया था कि 'स्वतन्त्र भारत में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।'

नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।'

गाँधी ने 22 फ़रवरी को कहा कि 'हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एकसाथ आना एक अपवित्र बात है।' नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने आगे कहा कि, "यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें।"

नौसेना विद्रोह ने "कांग्रेस और लीग के वर्ग चरित्र को एकदम उजागर कर दिया"। नौसेना विद्रोह और उसके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की भर्त्सना करने में लीग और कांग्रेस के नेता बढ़-चढ़कर लगे रहे, लेकिन सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की।

1967 में भारतीय स्वतंत्रता की 20 वीं वर्षगांठ पर एक संगोष्ठी चर्चा के दौरान, उस समय के ब्रिटिश उच्चायुक्त जॉन फ्रीमैन ने कहा कि, "1946 के विद्रोह ने 1857 के भारतीय विद्रोह की तर्ज पर दूसरे बड़े पैमाने के विद्रोह की आशंका को बढ़ा दिया था। ब्रिटिश को डर था कि अगर 2.5 मिलियन भारतीय सैनिक जिन्होंने विश्व युद्ध में भाग लिया था, विद्रोह करते हैं तो ब्रिटिश में से कोई नहीं बचेगा और अंग्रेजों के अंतिम व्यक्ति तक को मार दिया जाएगा"।

इतिहासकारों का मानना है कि 1946 में रॉयल नेवी के 200 ठिकानों और जहाज़ों पर हुए विद्रोह ने ब्रिटेन की सरकार को भारत जल्द छोड़ने पर मजबूर कर दिया था।

इतना डर भर गया था अंग्रेजों में। और उन्हें बचाने कौन आया? काँग्रेस तथा लीग के बड़े नेता। क्योंकि यदि यह विद्रोह कुछ दिन भी चल गया होता तो भारत अपनी शर्तों पर एक वर्ष पहले ही स्वतंत्र हो गया होता। परन्तु यदि ऐसा हो जाता तो, इन षड्यंत्रकारी नेताओं को उनके हिस्से के टुकड़े, बड़े बड़े पद, नामी गिरामी पुरस्कार आदि कैसे मिलते?

वे

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