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भारतीय हाथी, बंगाल टाइगर, भारतीय शेर, भारतीय गेंडा, गौर, शेर जैसी पूंछ वाला अफ्रीकी लंगूर, तिब्बती हिरन, गंगा नदी डॉल्फिन, नील गिरि तहर, हिम तेंदुए, ढोल, काली बतख, महान भारतीय बस्टर, जंगली उल्लू, सफेद पंख वाली बतख और कई अन्य भारत में सबसे लुप्तप्राय प्रजातियां हैं।
खतरे के कारण
प्रजातियों के खतरे के लिए प्राथमिक कारणों में से एक आवास की कमी है।आज, प्राकृतिक परिदृश्य के विनाश में मानव हस्तक्षेप एक प्रमुख भूमिका रहा है। असंख्य प्रजातियों के लिए भोजन और आश्रय प्रदान करने वाले पेड़ों का कटान, खनन और कृषि जैसी मानवीय गतिविधियां।
शिकार और अवैध शिकार करने से दुनिया भर में जानवरों और मछलियों की संख्या पर एक बहुत ही विनाशकारी और विपत्ति पूर्ण प्रभाव पड़ता है।
प्रदूषण जैसे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और अपशिष्ट प्रदूषण, विशेष रूप से प्लास्टिक के रूप में पशु प्रजातियों के लिए खतरे में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।प्रदूषण न केवल मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य संबंधी खतरों का कारण है, बल्कि यह जानवरों को भी प्रभावित करता है।
एक मजबूत और हार्दिक वातावरण में हमेशा शिकारियों और उनके शिकार जानवरों की संख्या के बीच एक सटीक संतुलन होता है।शिकारी, जो अपने शिकार के जानवरों के प्राकृतिक दुश्मन हैं, वे बूढ़े और बीमार शिकार चुनते हैं क्योंकि वे अपने समूह के साथ नहीं रह सकते। इस परिदृश्य में उनके बीच के रिश्ते पूरी तरह से स्वस्थ हैं क्योंकि शिकारियों ने इन शिकार जानवरों को ही खा लिया है जो कि पहले ही अपने जीवन के अंत के करीब आ रहे हैं। लेकिन समस्याएं अधिक स्पष्ट हो जाती हैं जब शिकारी उस क्षेत्र में घूमते रहते हैं जहाँ उन्हें केवल कुछ ही संख्या में अपने शिकार या जानवर मिलते हैं।
जानवरों को शिकार और अवैध शिकार से बचाने के लिए उन्हें अक्सर अभयारण्य और आश्रय में रखा जाता है।कुछ जानवरों के लिए यह बहुत फायदेमंद साबित हुआ है, हालांकि अन्य जानवर भी हैं जो खतरे में पड़ने से पीड़ित हैं और मुसीबत में हैं। मुख्य दो कारण हैं भीड़ और अत्यधिक चराई। आमतौर पर बहुत सारे जानवर छोटे क्षेत्रों में सीमित होते हैं। ये जानवर अक्सर एक सीमित इलाके में एक ही घास और पेड़ खाते हैं, जबकि प्राकृतिक परिवेश में चराई वाले जानवर खासतौर पर खा रहे भोजन को बदलते रहते हैं और अधिक समय तक आगे बढ़ते रहते हैं। लेकिन एक सीमित और छोटे क्षेत्र में वे उन्हीं पौधों से बार-बार खाते हैं और अत्यधिक तनाव के कारण पौधों को नष्ट कर देते हैं।
लुप्तप्राय पशुओं को बचाने के कुछ तरीके
अगर दुनिया भर में प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है तो दुनिया भर में जानवरों, मछलियों और पक्षियों पर इसका सकारात्मक प्रभाव हो सकता है।
लुप्तप्राय जानवरों को विलुप्त होने से बचाने के लिए, कई प्रजनन कार्यक्रम पेश किए गए हैं।सरकारी, गैर सरकारी संगठनों और अन्य कॉर्पोरेट निकायों को इस महान उद्देश्य के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि इस कार्यक्रम में समर्पित और विशेष लोगों तथा निश्चित रूप से बहुत धन की आवश्यकता है।
लुप्तप्राय जानवरों को अपनी संख्या में एक बार वृद्धि के बाद जंगलों में पुनः अपना जीवन शुरू करना कुछ मामलों में सफल हो गया है, हालांकि सभी प्रजातियों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं कियाहै।
यदि शिकार और अवैध शिकार को नियंत्रित किया जा सकता है तो लुप्तप्राय पशुओं की संख्या में एक महत्वपूर्ण बदलाव हो सकता है।
वन्य जीव संरक्षण के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम
जम्मू-कश्मीर (इसका अपना अधिनियम है) को छोड़कर सभी राज्यों ने, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम को 1972 में अपनाया गया, जो खतरे में आने वाली और दुर्लभ प्रजातियों के किसी भी प्रकार के व्यापार को रोकता है।
लुप्तप्राय प्रजातियों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों को हर प्रकार की वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
1970 में बाघ के शिकार पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया गया था और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में प्रभावी हुआ था। नवीनतम बाघ गणना (2015) के अनुसार, बाघों की आबादी में कुल 30% की वृद्धि हुई है।2010 में, बाघों की गणना के अनुसार भारत में 1700 बाघ बचे थे, जो 2015 में 2226 हो गए।
सरकार द्वारा अनगिनत संख्या में नेशनल पार्क, वन्यजीव अभ्यारण्य, पार्क आदि की स्थापना की गई है।
1992 में, देश में प्राणी उद्यान के प्रबंधन के पर्यवेक्षण के लिए केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (सीजीए) शुरू किया गया था।
1996 में, वन्य जीव सलाहकार समिति और वन्य जीव संस्थान वन्य जीव संरक्षण को उससे संबंधित मामलों की विभिन्न विशेषताओं पर सलाह मांगने के लिए स्थापित किया गया था।
भारत की लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने के लिए सरकार ने कई अन्य पहल की हैं।
भारत पाँच मुख्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का हिस्सा है जो वन्य जीव संरक्षण से जुड़े हैं। वे हैं- (i) लुप्तप्राय प्रजातियों (सीआईटीईएस) में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन, (ii) वन्यजीव तस्करी (सीएडब्ल्यूटी) के खिलाफ गठबंधन, (iii) अंतर्राष्ट्रीय व्हेलिंग कमीशन (आईडब्ल्यूसी), (iv) संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन – विश्व धरोहर समिति (यूनेस्को – डब्ल्यूएचसी) और (v) प्रवासी प्रजातियों पर कन्वेंशन (सीएचएस)।
भारत की लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने के लिए कई सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं पर यह पर्याप्त नहीं हैं। इस महान कार्य में आगे आने के लिए और अधिक गैर-सरकारी संगठनों और निजी कॉर्पोरेट क्षेत्रों की जरूरत है।
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आज हम चीते की बात जब उठा रहे हैं तब उन जानवरों का भी जिक्र करेंगे जो अब चीते की राह पकड़ चुके हैं। चीते की रफ़्तार को पूरी दुनिया मानती है अब उसी रफ़्तार से इन जंगली पशु-पक्षियों का सफ़ाया भी हो रहा है।
चीता: केवल तस्वीरों में ही देखिये...
क्या आप जानते हैं भारत में हमारे साथ कम से कम स्तनपायी(Mammals) जीवों की 397 प्रजातियाँ, पक्षियों की 1232, सरीसृपों (Reptiles) की 460, मछलियों की 2546 और कीट-पतंगों की 59, 353 प्रजातियाँ भी निवास करती हैं। भारत 18,664 तरह के पेड़-पौधों का घर भी है। भारत का कुल क्षेत्रफ़ल विश्व का 2.4 प्रतिशत ही है लेकिन जैव विविधता में भारत का योगदान 8 प्रतिशत है।
किसी पारिस्थितिक प्रणाली (Ecological System) में पाई जाने वाली जैव विविधता से उसके स्वास्थ्य का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। जितनी स्वस्थ जैव विविधता (Bio-Dioversity) होगी उतना ही स्वस्थ इकोलोजिकल सिस्टम भी होगा। लेकिन चोरी छुपे शिकार और प्राकृतिक पर्यावास के छिनने से जानवरों के विलुप्त होना का खतरा पैदा हो गया है।
आज हम बात इन्हीं जीव-जन्तुओं की करेंगे जो अपना दर्द बोल कर नहीं समझा सकते।
पहला नम्बर है "Save Tiger" मिशन के बाघ का । भारत का राष्ट्रीय पशु सर्वाधिक संकटग्रस्त प्रजातियों में से एक हैं। खाल और विभिन्न अंगों की भारी कीमत के चलते इनका शिकार किया जाता है। देश में अब केवल 1411 बाघ ही बचे हैं।
एशियाई शेर: गुजरात के गिर वन में अब करीब 411 शेर बचे है। पर्यावरण क्षरण, जल प्रदूषण और शिकार के लिये जानवरों की कमी के कारण यह प्रजाति संकट में है।
काली गर्दन वाला सारस (Black Necked Crane): यह जम्मू कश्मीर का राज्य पक्षी है। जैविक दबावों, झीलों और दलदली क्षेत्रों के सूखने और बढ़ते प्रदूषण के चलते, अब अत्यन्त दुर्लभ है।
पश्चिमी ट्रैगोपैन (Western Tragopan): हिमालय के निकटवर्ती स्थानों में पाये जाने वाली एक दुर्लभ तीतर प्रजाति। शिकार और पर्यावास क्षरण (Habitat Degradation) के कारण संकट में है।
गिद्ध: यह प्रमुख रूप से मृत-पशु माँस पर निर्भर है। पशुओं में बड़े पैमाने पर डाइक्लोफ़ेनेक दवा के इस्तेमाल के कारण आज इनकी संख्या 97 से 99 प्रतिशत तक कम हो गई है।
हिम तेंदुआ (Snow Leopard): हिमालय की ऊँचाईयों मे पाईजाने वाली बिल्ली की अत्यन्त फ़ुर्तीली प्रजाति। चोरी छिपे इसके शिकार और शिकार के लिये जानवरों कीकमी के कारण इसकी संख्या में भारी कमी आई है।
लाल पांडा (Red Panda): वृक्षों पर रहने वाला पूर्वी हिमालय का स्तनपायी जीव। वनों का सफ़ाया होने से इसके पर्यावास में हुई कमी के कारण आबादी में जबर्दस्त कमी आई है।
सुनहरा लंगूर (Golden langoor): ब्रह्मपुत्र नदी के आसपास पाया जाता है। अब इनकी संख्या तेजी से घत रही है।
भारतीय हाथी (Indian Elephant): राष्ट्रीय विरासत पशु। हाथी दाँत के लिये चोरी छिपे शिकार और पर्यावास के नष्ट होने कारण संकटग्रस्त। जंगलों में केवल 26000 हाथी बचे हैं।
एक सींग वाला एशियाई गैंडा (Indian One-Horn Rhino): कभी गंगा के मैदानी इलाकों में बहुतायत में था, लेकिन सींग की वजह से इसके अत्याधिक शिकार और प्राकृतिक पर्यावास के चलते आज जंगलों में करीब 2100 गैंडे ही बचे हैं।
दलदली क्षेत्र का हिरण (Swamp Deer): यह हिरण मूल रूप से भारत और नेपाल में पाया जाता है; पर्यावास क्षरण और अन्य नृविज्ञानी (Anthropogenic Pressure) दबावों के कारण इनकी संख्या घटी है।
ओलिव रिडले कछुआ (Olive Ridle Turtle): भारत के पूर्वी तट पर पाया जाने वाला सबसे छोटा कछुआ। केवल ओड़िशा तट पर भारी संख्या में अंडे देता है। प्रजनन स्थलों की संख्या में कमी, मछलियों के जालों मेम फ़ँस जाने और समुद्री जल के बढ़ते प्रदूषण के कारण इनकी आबादी को खतरा हो गया है