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badalte samaj mein mahilao ke stithi
(बदलते समाज में महिलाओ के स्तिथी)
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भारतीय समाज में प्रारंभ से ही नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यह देवी तथा पूज्या है। मनु के शब्दों में ‘‘य़त्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ अर्थात् जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। नारी तथा पुरूष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का व्यक्तित्व अपूर्ण है। नारी राष्ट्र की निर्माता है। वह यद्यपि पुरूष के समान कोमल है परन्तु उसका हृदय पुरूष से अधिक मजबूत है। वह पुरूष केा उन्नति की प्रेरणा देने वाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शक्ति तथा प्रेम, दया एवं त्याग की प्रतिमूर्ति है। महात्मा गाँधी के शब्दों में वह अहिंसा की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। भारत में प्राचीन वैदिक काल में स्त्री केा पुरूष के ही समान अधिकार प्राप्त थे। वह अपने इन अधिकारों का उपभोग भारत में मुस्लिम शासन के स्थापित होने से पूर्व तक करती रही। वैदिक युग में उसे समाज में देवी के रूप में सम्मान प्राप्त था। वैदिक युग में स्त्री तथा पुरूष के मध्य विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। ऋग्वेद में स्त्री को पुरूष का निकटतम साथी माना गया है। इस काल में विवाह न केवल दो शरीरों का मिलन मात्र ही था बल्कि यह दो आत्माओं का मिलन था। विवाह स्वयं में साध्य नहीं था, बल्कि पूर्णता का प्राप्त करने का एक साधन था। इस युग में बहुविवाह वर्जित था। शास्त्रों के विधान के अनुसार एक हिंदू पति दूसरा विवाह अपनी पत्नि की सहमति से ही कर सकता था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें रामायण काल में मिलता है। रामायण काल में भगवान राम के अश्वमेघ यज्ञ की पूर्णाहुतिकेवल उसी समय ही दी जा सकी जबकि उन्होंने अपने पास अपनी पत्नी की मूर्ति को प्रतिष्ठापित किया। प्राचीन काल में विधवाओं की दशा भी शोचनीय नहीं थी। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार वैदिक साहित्य में सती प्रथा या आत्मदाह प्रथा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इस संबंध में ग्राहय के सूत्र भी मौन है परंतु इस युग में विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। प्राचीन स्मृति साहित्य में विधावाओं के पुनर्विवाह का विरोध किया गया है।
मुस्लिम शासनकाल में नारी का व्यक्तित्व घर की चारदीवारी तक सीमित हो गया। स्त्री तब मुस्लिम सम्राटों की वासना का लक्ष्य हो गयी थीं। ब्रिटिश शासन काल में भी नारी पराधीन की स्थिति में रही। उसकी स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती चली गयी। इस युग में शासकों ने नारी के मन में हीनता की भावना भर दी जिससे कि आगामी पीढ़ियों का विकास न हो पाये।
भारत के स्वतंत्र होने पर सरकार का ध्यान नारी जाति की दशा में सुधार करने की ओर गया। इसी आशय से हिन्दू कोर्ट बिल पारित किया गया तथा इस विधेयक में स्त्री को अपने माता-पिता की सम्पत्ति में हिस्सा लेने तथा अपने पति से न्यायिक पृथक्करण लेने का अधिकार प्रदान किया गया। दहेज पर कानूनी रूप से रोक लगा दी गई। देश के कई राज्यों में वैश्यावृत्ति पर प्रतिबंध लगा दिया गया। विधवा विवाह को प्रोत्साहन दिया गया। नारी को समान कार्य के लिए समान वेतन दिये जाने की व्यवस्था की गई।
भारत में नारी जाति के कल्याण के लिए एक समिति का, जिसमें 33 संगठन शामिल थे, कठन किया गया। इस समिति ने सिफारिश भी की कि दहेज को एक संज्ञेय अपराध घोषित किया जाये, प्रताड़ित महिलाओं को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान की जाये तथा प्रत्येक राज्य की राजधानी में एक नारी गृह की स्थापना की जाये। इस समिति ने नारी के समान कार्य के लिए समान वेतन देने की सिफारिश भी की तथा साथ ही नारी के व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए अधिक से अधिक सुविधायें प्रदान किये जाने की मांग की। इस समिति ने यह भी महसूस किया कि घरेलू जीवन में अब भी नारी का शोषण होता है। परंतु आज सामाजिक वातावरण परिवर्तित हो चुका है तथा नारी सदियों पुराने दासता के बंधन को तोड़ रही है। वह आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर, राजनीतिक दृष्टि से समान तथा सामाजिक दृष्टि से स्वतंत्र है। वह न तो घर की चारदिवारी तक सीमित है एवं न ही पुरूष की इच्छाओं की गुलाम है। आज स्त्री तथा पुरूष दोनों को यह महसूस करना चाहिए कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। उनके संबंध समानता तथा पारस्परिक सम्मान की भावना पर आधारित होने चाहिए। स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने महिलाओं के लिए एक और नया कदम उठाया था कि देश में लड़कियों के लिए उच्च विद्यायल तक की शिक्षा निःशुल्क दी जायेगी। आज भारतीय नारी, अत्यधिक स्वतंत्रता, सुविधा और अधिकारों की माँग करने लगी है। इससे घरेलू जीवन के कलहपूर्ण होने तथा अनेकों सामाजिक समस्याओं के उत्पन्न होने की संभावना है। वस्तुतः आज की स्थिति में भारतीय नारी को चाहिए कि वह पश्चिम की चकाचैंध में अपने ईश्वर प्रदत्त गुणों की तिलांजलि न देते हुए वास्तविक स्वतंत्रता का उपभोग करें।