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loktantra aur taanashahi
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Loktantra & taanasahi
संसार में विभिन्न प्रकार के वाद प्रचलित रहे और आज भी विद्यमान है। इनमें से लोकतंत्र और तानाशाही दो विभिन्न चरित्र, स्वरूप और स्वभाव वाली शासन व्यवस्थाओं का नाम है। पहली-यानी लोकतंत्र की शासन-व्यवस्था में आम जन का महत्व रहता है, जबकि दूसरी-यानी तानाशाही में किसी एक ही व्यक्ति विशेष का मूल्य और महत्व सर्वोच्च रहा करता है। दोनों के स्वरूप-स्वभाव में यह मौलिक अंतर होने के कारण ही दोनों का कार्यगत चरित्र भी बुनायादी तौर पर बदल जाता है। लोकतंत्र में जहां शासन की सारी व्यवस्था जनता के सामूहिक हित को सामने रखकर की जाती है, वहां तानाशाही में एक ही या उस एक से संबद्ध कुछ गिने-चुने लोगों को ही महत्व दिया जाता है, सबको नहीं, उन्हीं कुछ के ही हितों का ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि पहली लोकतंत्रीय व्यवस्था को सर्वाधिक सुंदर, शुभ, श्रेष्ट और दूसरी तानाशाही को अशुभ एंव अहितकर माना जाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रमुख है पर वह उपर्युक्त दूसरी व्यवस्था में नहीं रह पाती।
लंबे व्यवहार और अनवरत अनुभव से यह प्रमाणित हो चुका है कि लोकतंत्री शासन-व्यवस्था भी अपने आप में सर्वांगपूर्ण नहीं है। इसमें अनेक प्रकार की कमियां और त्रुटियां पाई जाती है। सबसे बड़ा दोष ह कहा जाता है कि इस व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति किसी कार्य का समूचा दायित्व अपने ऊपर नहीं लेता। दायित्व आरंभ से अंत तक बंटा रहता है, अत: सामान्य से सामान्य कार्य संपन्न होने में भी एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, कई बार जब तक काम हो पाता है तब तक आपका महत्व समाप्त हो चुका होता है या फिर कई बार सेंबद्ध कई व्यक्ति ही बेचारा स्वर्ग के लोकतंत्र का निवासी बन चुका होता है। यह लंबी और व्यक्तियों के हाथों से गुजरने वाली कार्य-संपादन की प्रक्रिया रिश्वत-खोरी और भ्रष्टाचार के खुले अवसर प्रदान करती है। बिना रिश्वत या तगड़ी पहुंच के फाइल एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं सरकती ही नहीं। भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था के अनुभवों ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि लोकतंत्र की कार्य-प्रणाली लाल फीताशाही, अफसरशाही, भाई-भतीजावाद, भ्रष्ट राजनेताशाही गुडागीरी तथा अन्य प्रका के हवालाई भ्रष्टाचारों को भी फलतने-फूलने का मुक्त अवसर प्रदान करती है। इसमें चपरासी से लेकर उच्च पदस्थ कर्मचारी तक अनेक प्रकार के कुटैवों का शिकार हो जाया करता है। कम से कम भारत में लोकतंत्र के परीक्षण का अबतक का परिणाम इससे अच्छा नहीं कहा जा सकता। हां, इसमें चुनाव आदि के कारण व्यवस्स्था को बदल डालने का अधिकार पांच वर्षों में एक बार मतदाताओं के हाथ में अवश्य रहता है, पर अभी तक के अनुभव बताते हैं कि इस बदलाव के परिणाम भी वही ढाक के तीन पाात ही आते हैं। एक भ्रष्ट जाता है, तो दूसरा उसका भी बाप आ जाता है। यही कारण है कि अब इस परंपरा को खोखली और बेकार माना जाने लगा है।
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Quit writing gibberidh ugh and don't say it's hindi becuse it's not
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