Hindi, asked by mamtadagar2017, 10 months ago

write a poem about God and bhagat in hindi​

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Answered by sarithavasa35
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Explanation:

भगत सिंह पर कविता *

*हंसते हंसते फांसी को गले लगाया*

मोमबत्तियां बुझ गयी

चिराग तले अँधेरा छाया था

फांसी के फंदे पर जब

तीनों वीरों को झुलाया था

सुखदेव,भगत सिंह,राजगुरु के

मन को कुछ और न भाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

तीनों के साथ आज

एक बड़ा सा काफिला था

भारतवर्ष में लगा जैसे

मेला कोई रंगीला था

लेकर जन्म इस पावन धरा पर

उन्होंने अपना फर्ज निभाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

मौत का उनको डर न था

सीने में जोश जोशीला था

परवाह नहीं थी अपने प्राण की

बसंती रंग का पहना चोला था,

छोड़ मोह माया इस जग की

अपनों को भी भुलाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

इंकलाब का नारा लिए

विदा लेने की ठानी थी

लटक गए फांसी पर किन्तु

मुख से उफ्फ तक न निकाली थी,

देश भक्ति को देख तुम्हारी

सबने अश्रुधार बहाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

तुम छोड़ गए इस दुनिया को

दिखाकर आजादी का सपना

सपना हुआ था सच लेकिन

हमने खो दिया बहुत कुछ अपना,

गोरों ने अपनी संस्कृति को

हमारे सभ्याचार में बसाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

टुकड़े टुकड़े कर गोरों ने

भारत माँ का सीना चीरा था

एकसूत्र करने का हम पर

बहुत ही बड़ा बीड़ा था,

हिन्दू मुस्लिम के झगड़ों ने

इंसानियत के रिश्ते को भरमाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

आज़ादी के बाद तो देखो

कैसे यह लगी बीमारी थी

हिन्दू मुस्लिम के चक्कर में

लड़ना सबकी लाचारी थी,

कुछ को हिंदुस्तान मिला

तो कुछ ने पाकिस्तान बनाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

जातिवाद का खेल में

बंट गया समाज भी अपना

ये तो वो न था

जो देखा था तुमने सपना,

सत्ता का खेल निराला आया

परिवार वाद भी उसमे गहरा छाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

गाँधी नेहरू और जिन्ना ने फिर

राजनितिक माहौल बनाया था

देश की सत्ता की खातिर

अखंडता को दांव पर लगाया था,

बस अपनी बात मनवाने को

देश को टुकड़ों में बंटवाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

सरहद के उस बंटवारे का

आज तलक असर दिखता है

भारत पाक की सीमाओं पर

सिपाही मौत से लड़ता है,

तुमने जो सोचा था वैसा

कोई ये देश बना न पाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

इक वक़्त के खाने के लिए

कोई गरीब दिन-रात तरसता है

कुछ ने रेशम की पोशाक वालों का

गुस्सा मजलूमों पर बरसता है,

कहीं जात-पात का शोर

तो कहीं आरक्षण ने सबको लड़ाया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

जैसा न तुमने सोचा था

वैसी है अपनी आज़ादी

देश के लोग ही कर रहे हैं

आज इस देश की बर्बादी,

जब-जब सोचा तुम्हारे बारे में

मुझको तो रोना आया था

हँसते हँसते देश की खातिर

फांसी को गले लगाया था।

स्वरचित

हरीश चमोली

टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड)

- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।

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